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[ . जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
आचार्य श्री देवसूरि का अनहिलपुरपत्तन का चातुर्मासावास पूर्ण हो जाने के अनन्तर कुछ समय पश्चात् कर्णावती नगरी का संघ श्री देवसूरि की सेवा में उपस्थित हुआ और उसने प्राचार्यश्री से अनुनय-विनयपूर्ण भावभरी विनती की कि अगला वर्षावास वे कृपा कर कर्णावती नगरी में करें। देवसूरि ने श्रद्धालु संघ की .. प्रार्थना स्वीकार कर अनहिलपुरपत्तन से विहार किया और अनेक क्षेत्रों में जन्मजरा-मृत्यु से सदा-सदा के लिये मुक्ति दिलाने वाले सर्वज्ञप्रणीत जैन धर्म का प्रचारप्रसार करते हुए वे विहारक्रम से समय पर कर्णावती नगरी पधारे और वहां चातुसिावासार्थ . एक उपाश्रय में विराजमान हुए। वहां पर भगवान् अरिष्टनेमि के मन्दिर में प्रतिदिन प्रवचनामृत की वर्षा कर भव्य जनों को प्राप्यायित कर धर्ममार्ग पर अग्रसर करने लगे। अन्तर्चक्षुओं को उन्मीलित कर देने वाले श्री देवसूरि के अध्यात्मपरक उपदेशों को सुनने के लिये न केवल कर्णावती के नर-नारी वृन्द ही अपितु दूर-दूर के मुमुक्षु तीव्र उत्कण्ठा के साथ बड़ी संख्या में उपस्थित होने लगे । आचार्यश्री के प्रवचनपाटव की कीर्ति चारों ओर दूर-दूर तक प्रसृत हो गई।
आचार्य श्री देवसूरि के कर्णावती चातुर्मासावास के समय पत्तनपति सिद्धराज जयसिंह के नाना कर्णाटकाधीश जयकेशिदेव के धर्मगुरु दिगम्बराचार्य श्री कुमुदचन्द्र भी कर्णावती नगरी में भगवान् वासुपूज्य के मन्दिर में वर्षावासार्थ विराजमान थे। कर्णावती एवं सुदूरस्थ प्रदेशों के विशाल जनसमूह को केवल देवसूरि के दर्शनों और प्रवचनश्रवण के लिये उद्वेलित सागर की तरह उमड़ते, उनकी कीर्तिपताका को चारों ओर लहराते और जनमानस में अपनी ओर उपेक्षा भाव देखकर महावादी दिगम्बराचार्य की मनोभूमि में देवसूरि के प्रति अमर्श एवं ईर्ष्या के बीज अंकुरित हो उठे। प्रभावकचरित्र के उल्लेखानुसार दिगम्बर महावादी कुमुदचन्द्र ने अपने उपासकों के माध्यम से काव्यकलाकोविद वन्दीजनों को दान-सम्मानादि प्रलोभनों से अपने वश में कर देवसूरि को उत्तेजित करने का प्रयास किया। वन्दीगण व्याख्यान-स्थल में जाकर सम्पूर्ण श्वेताम्बर आम्नाय को और विशेषतः देवसूरि को लोगों की दृष्टि में उपहासास्पद एवं तिरस्कृत करने के अभिप्राय से अनेक प्रकार के गद्यगीत सुनाने लगे। एक वन्दी ने एक दिन व्याख्यानस्थल में उपस्थित विशाल जनसमूह के समक्ष निम्नलिखित श्लोक उच्च स्वर से सुनाया :हंहो श्वेतपटाः किमेष विकटाटोपोक्तिसण्टंकितैः,
संसारावटकोटरेऽतिविषमे मुग्धो जनः पात्यते । तत्वातत्वविचारणासु. यदि वो हेवाकलेशस्तदा,
सत्यं कौमुदचन्द्रमंह्रियुगलं रात्रिंदिवं ध्यायत ॥१२॥ " अर्थात्-हे श्वेताम्बरों! अपनी इन शब्दाडम्बरपूर्ण कूटोक्तियों से संसार के भोले मुग्धजनों को रसातल में क्यों गिरा रहे हो। यदि तत्वातत्व के निर्णय में
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