________________
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
अपने प्राराध्य गुरुदेव के मुख से अपने स्वप्न का फल सुनकर जिनदेवी के आनन्द का पारावार न रहा । वह अपने घर लौटी और बड़ी सावधानीपूर्वक अपने गर्भस्थ अर्भक का पालन करने लगी । गर्भकाल पूर्ण होने पर विक्रम सम्वत् १९४३ ( ग्यारह सौ तयालीस) में जिनदेवी ने एक सुन्दर पुत्ररत्न को जन्म दिया । वीर नाग और जिनदेवी बड़े दुलार के साथ अपने पुत्र का लालन-पालन करने लगे और चन्द्र के स्वप्न दर्शन को ध्यान में रखते हुए उन्होंने उस बालक का नाम पूर्णचन्द्र रखा । पूर्णचन्द्र के शैशव काल में ही मद्दाहत नगर में महामारी का प्रकोप हुआ और उसके परिणामस्वरूप वीरनाग और जिनदेवी अपने पुत्र पूर्णचन्द्र को साथ ले लाट प्रदेश भृगुकच्छपुर ( भड़ौंच ) नगर में जा बसे ।
२८८ ]
इन संकट के दिनों में प्राठ वर्षीय बालक पूर्णचन्द्र ने जीविकोपार्जन में अपने पिता का हाथ बटाने का निश्चय किया । तदनुसार वह अनेक प्रकार के सुस्वादु व्यञ्जन घर पर बनाकर श्रीमन्तों के घर विक्रयार्थ ले जाने लगा । पुण्यवान् बालक पूर्णचन्द्र को अपने इस छोटे से व्यवसाय से पर्याप्त प्राय होने लगी । एक दिन वह अनेक प्रकार के व्यञ्जन लेकर एक श्रीमन्त के घर पहुंचा । उसने देखा कि गृहस्वामी एक घड़े में से बड़े आकार की स्वर्णमुद्राएं चिमटे से पकड़-पकड़ कर चौक में फेंक रहा है । बालक पूर्णचन्द्र को बड़ा विस्मय हुआ । उसने तत्काल उस श्रेष्ठि को सम्बोधित करते हुए कहा - "श्रेष्ठिवर ! आप मानव जीवन के लिए संजीवन स्वरूप इस महाघ् य द्रव्यः स्वर्ण मुद्राओं को विषैले कीटों की भाँति चिमटे से पकड़-पकड़ कर बाहर क्यों फेंक रहे हैं ?"
यह सुनते ही गृहस्वामी के प्राश्चर्य का पारावार नहीं रहा । उसने बालक के सौम्य मुख की ओर अपलक देखते हुए मन ही मन विचार किया - "ये विषैले बिच्छू स्वर्ण मुद्राओं के रूप में इस बालक को दृष्टिगोचर हो रहे हैं । प्रवश्यमेव यह कोई महा पुण्यवान् प्राणी है ।"
उसने स्नेहसिक्त स्वर में पूर्णचन्द्र को सम्बोधित करते हुए कहा - " वत्स ! यह एक बांस की टोकरी लो और इस महाय द्रव्य को इसमें डाल-डालकर मुझे दो ।"
बालक ने तत्काल उन सब स्वर्ण मुद्राओं को, जो श्रेष्ठि को बिच्छुओं के रूप में दृष्टिगोचर हो रही थीं, चुन-चुनकर उस टोकरी में रखा और वह टोकरी उस श्रेष्ठि को समर्पित करने लगा । गृहस्वामी को यह देखकर अपार हर्ष मिश्रित अचिन्त्य आश्चर्य हुआ कि उस बालक के हाथ लगाते ही बे सब बड़े-बड़े बिच्छू स्वर्णमुद्राओं के रूप में परिवर्तित हो गये हैं । अब तो उसने टोकरी में भरी उन स्वर्णमुद्राओं को अपने कोषागार में रखना प्रारम्भ किया । बालक उन विशाल घटों से स्वर्ण मुद्राओं को निकाल निकालकर टोकरी में भर-भर कर गृहस्वामी को देता
Jain Education International Education
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org