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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] दक्षिण में जैन संघ पर......"
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स्वामी कलचुरी महाराजा बिज्जल की गुप्त रूपेण विष प्रयोग द्वारा हत्या करवा दी। इस जघन्य कृत्य के पश्चात् अपने प्राणों को बचाने के लिए बसवा भाग खड़ा हुआ । बिज्जल के पुत्रों ने उसका पीछा किया। पीछा करते हुए कल्चुरी राजकुमारों और उनकी सेनाओं से बचने का और कोई उपाय न देख लिंगायत सम्प्रदाय के अग्रणी नेता बसवा ने धारवाड़ के पास एक कुएं में झंपापात कर अपना प्रारणांत कर लिया। बसवा की आत्महत्या ने उसे धर्म के नाम पर बलिदान होने वाले महावीरों की श्रेणी में स्थान दिया। बसवां की मृत्यु ने लिंगायत सम्प्रदाय के अनुयायियों के मानस में धर्मोन्माद को भयंकर रूप से उद्वेलित कर दिया। स्थानस्थान, ग्राम-ग्राम और नगर-नगर में जैनों का सामूहिक रूप से संहार प्रारम्भ हुआ । जैनों के धर्मस्थानों का नामोनिशान तक मिटाया जाने लगा। जैनों का बलात धर्म परिवर्तन करवा कर उन्हें लिंगायत सम्प्रदाय का अनुयायी बना दिया गया । यह क्रम ईसा की सोलहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध तक चलता रहा। उग्र रूप धारण किये हुए लिंगायतों के प्रान्तव्यापी जनविरोधी योजनाबद्ध प्रचार और उनके द्वारा सामूहिक रूप से किये गये जैनों के सामूहिक संहार के परिणामस्वरूप शताब्दियों से आन्ध्रप्रदेश में बहुसंख्यक रूप में चले आ रहे जैन धर्मावलम्बी नाममात्र के लिये भी वहां अस्तित्व में नहीं रहे ।
जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है, समय-समय पर सीमित अवधि तक अस्तित्व में रहे समुद्री तूफानों के परिणामस्वरूप कितनी जन-धन की हानि हुई इसका अनुमान सर्व साधन सम्पन्न आज के वैज्ञानिक युग में भी नहीं लगाया जा सकता, तो ईसा की छठी शताब्दी के अन्त से ईसा की पन्द्रहवीं शताब्दी के अन्त तक लगभग ६०० (नौ सौ) वर्षों तक जन मानस में उद्वेलित होते रहे धार्मिक उन्माद रूपी तूफान से जैनों का कितना भीषण रूप से संहार हुआ होगा, इसका अनुमान तो कल्पना की ऊंची उड़ानों से भी लगाना सम्भव प्रतीत नहीं होता।
धर्मोन्माद में अन्धे बने मानवों ने जैन धर्मावलम्बी अपने ही बान्धवों का किस प्रकार निर्दयतापूर्वक भीषण संहार किया इसका अनुमान श्रीशैलम् पर अवस्थित मल्लिकार्जुन मन्दिर के मुख्य मण्डप के दक्षिण एवं वाम पार्श्व पर अवस्थित पाषाण स्तम्भों पर विक्रम सम्वत् १४३३ में उठेंकित किये गये एक शिलालेख से सहज ही लगाया जा सकता है।
संस्कृत भाषा में उटैंकित इस शिलालेख में लिंगायतों के लिंगा नामक (शान्त के पुत्र) एक अग्रणी नायक द्वारा मन्दिर को की गई भेंट के विवरण के साथ उसकी प्रशंसा करते हुए यह लिखा गया है कि लिंगायतों के प्रमुख नेता लिंगा ने अपनी तलवार से श्वेताम्बर जैन साधुओं के सिर काटे। .
इससे यह स्पष्टतः प्रकाश में आ जाता है कि धर्मोन्माद से अन्धे बने लिंगायतों ने कितनी निर्दयता और क्रूरता के साथ विक्रम की पन्द्रहवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में जैनों का सामूहिक रूप से संहार किया।
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