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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
popularity of the religion among the trading classes in the north, and the extensive royal patronage it enjoyed in South.
This is the most flourishing period in the history of Jainism in the Deccan. There was no serious rival for it, and it was basking in the sunshine of popular and royal support. Dr. Altekar surmises that probably one third of the population of the Deccan was following the gospal of Mahavira during the period under review. Jainism received a serious set back shortly afterwards owing to rapid spread of the Lingayata sect."1
श्री अल्तेकर के इस कथन का सारांश यह है कि विक्रम की दसवीं शताब्दी में चावड़ा राजवंश की समाप्ति के अनन्तर उत्तर भारत में यद्यपि जैन धर्म को राज्याश्रय का अवलम्बन नहीं के समान रह गया था तथापि व्यवसायी वर्ग में इसके प्रति प्रगाढ़ आस्था रहने के कारण इसकी लोकप्रियता में कोई विशेष अन्तर नहीं आया था। किन्तु दक्षिण भारत में जैनधर्म को पर्याप्त समय तक राज्याश्रय की सुविधाएँ प्राप्त होती रहीं। वह समय वस्तुतः जैनधर्म के लिये दक्षिणापथ के इतिहास में बड़ा ही उज्ज्वल समय था। उस समय दक्षिण में जैनधर्म का कोई प्रबल प्रतिपक्षी नहीं था । अतः जैनधर्म उस अवधि में सर्व साधारण प्रजा एवं राजवंशों की सहायता से मध्याह्न के सूर्य के समान चमकता रहा । डा० अल्तेकर का अभिमत है कि उस समय जैनों की संख्या दक्षिण भारत में लगभग सम्पूर्ण जनसंख्या की एक तिहाई थी। किन्तु कुछ समय पश्चात् लिंगायत सम्प्रदाय के बड़ी तीव्र गति से प्रचार प्रसार के परिणामस्वरूप जैनधर्म को बड़ा भयंकर आघात पहुँचा।
इन सब ऐतिहासिक तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में जैन धर्मावलम्बियों की शैव धर्मावलम्बियों के जैन विरोधी अभियान से पूर्व की जैन धर्मावलम्बियों की संख्या और शैवों के अभियान के अन्तिम दौर के पश्चात् की जैन धर्मावलम्बियों की संख्या का तुलनात्मक दृष्टि से लेखा जोखा करने पर सहज ही प्रत्येक विज्ञ को विदित हो जाता है कि लगभग नौ सौ वर्ष के जैन विरोधी अभियानों में कितनी बड़ी संख्या में जैन धर्मावलम्बियों का संहार, प्राणापहार, एवं बलात् धर्मपरिवर्तन किया गया।
1.
History and Culture of the Indian People Volume IV-The age of Imperial Kannauj, published by Bhartiya Vidya Bhawan, Bombay second Edition; 1964 page 288.
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