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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ करने लगा । ज्यों-ज्यों आगम वाचना का क्रम उत्तरोत्तर आगे की ओर बढ़ता गया त्यों-त्यों जिनवल्लभ के अन्तर्चा उन्मीलित होते गये । इस प्रकार के अध्यवसायी, मेधावी, मनस्वी और एकाग्र चित्तवृत्ति वाले शिष्य को प्राप्त कर अभयदेवसूरि को. भी असीम आनन्द की अनुभूति हुई। वे जब भी समय मिलता रात दिन जिनवल्लभ को आगमों की वाचनाएं देने लगे और इस प्रकार थोड़े ही समय में अभयदेवसूरि ने जिनवल्लभ को सभी आगमों की पूर्ण वाचनाएं प्रदान कर दी।
पूर्व में किसी एक ज्योतिष विद्या के विद्वान् ने अभयदेवसूरि से निवेदन किया था कि यदि उनका कोई अतिशय मेधावी सुयोग्य शिष्य हो तो उसे उसके पास ज्योतिष विद्या की शिक्षा के लिये भेजें। तदनुसार अभयदेवसूरि ने जिनवल्लभ को आगमों की वाचना देने के अनन्तर उस ज्योतिषी के पास ज्योतिष विद्या का भी अध्ययन करने के लिये भेजा। उस ज्योतिविद् ने स्वल्प समय में ही जिनवल्लभ को ज्योतिष विद्या का निष्णात विद्वान् बना दिया। इस प्रकार ज्योतिष विद्या में भी निष्णातता प्राप्त करने के अनन्तर जिनवल्लभ पुनः अभयदेवसूरि की सेवा में रहने लगा। एक दिन अभयदेवसूरि ने जिनवल्लभ से कहा-"पुत्र! तुम्हें आगमों का अध्ययन करवा दिया गया है । आगमों का ज्ञान प्राप्त कर लेने के पश्चात् अब तुम जो उचित समझो वही करो।"
जिनवल्लभ ने सांजलि शीष झुका "यथाऽज्ञापयति देव !" कहते हुए सुदृढ़ स्वर में कहा- "भगवन् ! मैं यथा शक्ति आप से प्राप्त आगम ज्ञान के अनुसार ही आचरण करूगा।"
एक दिन शुभ घड़ी में अभयदेवसूरि की प्राज्ञा प्राप्त कर जिनवल्लभ अपने चैत्यवासी प्राचार्य से मिलने के लिये उसी मार्ग से प्रस्थित हा जिस मार्ग से कि वह पाटण में आया था। मार्ग में अवस्थित मरुकोट्ट नगर में वह उसी श्रावक के चैत्य में ठहरा । उसने उस देवगृह में इस प्रकार की विधि लिखी जिससे प्रविधि चैत्य भी विधि चैत्य बन जाता है । वह विधि इस प्रकार है
(१) यहां प्रागम विरुद्ध कोई बात नहीं की जायगी। (२) रात्रि में यहां कभी स्नात्र कार्य नहीं किया जायगा। (३) यहां कोई साधु ममतापूर्वक अपना आश्रय बनाकर नहीं रह सकेगा। (४) यहां रात्रि में किसी भी स्त्री का प्रवेश नहीं होगा। (५) यहां जाति वंश कुल आदि का कोई भेद अथवा कदाग्रह नहीं होगा। (६) यहां श्रावकजन न तो ताम्बूल चर्वण कर सकेंगे और न ताम्बूल
मुख में डाले यहां प्रवेश ही कर सकेंगे। तदनन्तर अपने गुरु से मिलने के लिये जिनवल्लभ मरुकोट से प्रस्थित हुए। प्राशिदुर्ग से तीन कोस पूर्व ही माईयड़ नामक ग्राम में जिनवल्लभ ठहर गये। स्वयं
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