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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
जिनवल्लभसूरि
अहो क्षोभं व्रजेयुः क्वचिदपि समये दैवयोगात्तदानीं
न क्षोणी नाद्रिचक्रं न च रविशशिनौ सर्वमेकार्णवं स्यात् ।।
अर्थात् कहीं हमारी मर्यादा का भंग न हो जाय इस भय से, अपने प्रगाध उदर में अमृत होने के कारण तथा प्रथाह धैर्य एवं गाम्भीर्य के धनी होने के कारण अगाध अपार पानी के अक्षय निधान होते हुए भी वे समुद्र कभी क्षुब्ध नहीं होते । यदि कदाचित् किसी समय किसी कारणवश दैव योग से यह समुद्र क्षुब्ध हो जायं तो न तो कहीं इस धरती का अता-पता रहे, न उत्तुङ्ग गगनचुम्बी पर्वतों की मालाएं और न सूर्य-च - चन्द्र ही दृष्टिगोचर हों । निखिल ब्रह्मांड केवल एकार्णव स्वरूप अर्थात् जल ही जल के रूप में परिणत हो जाय ।
इस उदन्त से जिनवल्लभगरिण के प्रक्षोभ्य गाम्भीर्य, अतुल साहस एवं अटल ग्रात्म-विश्वास की एक झलक दृष्टिगोचर होती है ।
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खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली के उल्लेखानुसार जिनवल्लभसूरि ने धारानगरी के राजाधिराज नर वर्मा की राज्य सभा के सम्मान की रक्षा की । बाहर के कोई दो विद्वान् एकदिन नरवर्मा की राज्यसभा में उपस्थित हुए और उन्होंने राजा की विद्वद् मंडली के समक्ष "कंठे कुठारः कमठे ठकारः " इस एक पद की समस्या पूर्ति का प्रस्ताव रक्खा । राज्य सभा के सभी विद्वानों ने अपनी-अपनी प्रज्ञा के अनुसार उस समस्या की पूर्ति की किन्तु उन दोनों विद्वानों कों किसी से संतोष नहीं हुआ । राज सभा की प्रतिष्ठा का प्रश्न था । राजा बड़ा चिन्तित हुआ । अपनी राजसभा के किसी एक विवेकशील पुरुष के परामर्श से एक चरण की उस समस्या को पत्र में लिखकर एक द्रुतगामी अश्वारोही दूत के साथ जिनवल्लभसूरि के पास चित्तौड़ भेजा । जिनवल्लभसूरि ने तत्काल शेष तीन चरणों की पूर्ति कर पूरा श्लोक एक पत्र में लिखकर धाराधीश नरवर्मा के पास तत्काल भेज दिया । सूर्योदय होते-होते वह दूत जिनवल्लभ गरिण का पत्र लेकर राजा की सेवा में उपस्थित हुआ । राजसभा में उस समस्यापूर्ति को निम्नलिखित रूप में सुनाया गया :--
“रे रे नृपाः ! श्री नरवरभूपप्रसादनाय क्रियतां नतांग्री । कंठे कुठारः कमठे ठकारश्चक्रे यदश्वोऽग्रखुराग्रघातैः ॥”
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अर्थात् अरे प्रो ! छोटे-बड़े राज्यों के राजाओं ! राजाधिराज श्री नरवर्मा को प्रसन्न करने के लिये उन्हें साष्टांग प्रणाम करके अपने कंठ पर कुल्हाड़ा रख लो क्योंकि उसके घोड़ों ने अपने खुरों के प्राघात से बड़े-बड़े राजाओं को भूलु ंठित कर दिया है ।
इस समस्यापूर्ति को सुनते ही वे दोनों ही विद्वान् समस्या-पूर्ति करने वाले अज्ञात विद्वान् की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हुए परम प्रमुदित हुए। अपनी राज्य
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