________________
२५६ ]
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ गच्छभेद के कारण जो कलहाग्नि जिनशासन में भड़क उठी थी, उसी के परिणामस्वरूप परस्पर एक-दूसरे को नीचा दिखाने के प्रयास प्रतिपक्षी गच्छों के विद्वानों द्वारा किये गये।
वस्तुतः तटस्थ दृष्टि से यदि जिनवल्लभसूरि के जीवनवृत्त पर विचार किया जाय तो यही तथ्य प्रकाश में आयेगा कि वे एक महान् क्रान्तिकारी विद्वान् थे। श्री वर्द्धमानसूरि ने विक्रम सम्वत् १०८० में क्रियोद्धार कर शिथिलाचार और चैत्यवासियों द्वारा जैनधर्म संघ में रूढ़ कर दिये गये विकारों के विरुद्ध जो अभियान प्रारम्भ किया था, उसे वस्तुतः जिनवल्लभसूरि ने बल दिया। विभिन्न क्षेत्रों में घूमघूम कर उन्होंने चैत्यवासियों के गढ़ों को धूलिधूसरित किया। संघ पट्टक जैसी क्रान्तिकारी कृति का निर्माण कर उन्होंने जन-जन के मन में शिथिलाचार के विरुद्ध विद्रोह को आग भड़का दी।
ऐसा प्रतीत होता है कि वर्द्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि के स्वर्गस्थ हो जाने के अनन्तर भी चैत्यवासियों का अनहिल्लपुर पट्टण में प्रबल बहुमत था । वसतिवास परम्परा को जिनेश्वरसूरि के प्रयासों से पट्टण में धर्म प्रचार की स्वतन्त्रता मिल चुकी थी तथापि गुर्जर राज्य के उच्च पदों पर, व्यावसायिक प्रतिष्ठानों पर एवं सामाजिक संगठनों पर चैत्यवासी परम्परा के अनुयायियों का बड़ा गहरा प्रभाव था। इसी कारण पाटण के संघ पर चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्यों का प्रभुत्व बना रहा । जैसा कि अभयदेवसूरि के प्रकरण में बताया जा चुका है-कोई भी चाहे कैसी ही शक्तिशाली परम्परा क्यों न हो-चैत्यवासी परम्परा के साथ मिलजुलकर रहने की दशा में ही वह न केवल अपहिल्लपुर पट्टण में ही, अपितु समस्त गुर्जर राज्य में अपना अस्तित्व बनाये रख सकती थी। यही कारण था कि अभयदेवसूरि ने चैत्यवासी आचार्य द्रोणाचार्य की पहल पर उनके साथ समन्वयात्मक सहयोग का हाथ बढ़ाया। अनुमानतः अभयदेवसूरि के जीवनकाल तक चैत्यवासी परम्परा के साथ सुविहित परम्परा का, मुख्यतः वर्द्धमानसूरि की परम्परा का पूर्णतः सौहार्दपूर्ण एवं पारस्परिक सहयोगपूर्ण मधुर व्यवहार रहा। हमारे इस अनुमान की पुष्टि इन दो तथ्यों से होती है कि द्रोणाचार्य द्वारा जो चैत्यवासी परम्परा के ८३ प्राचार्यों को आगमों की वाचनाएं प्रतिदिन दी जाती थीं उनमें प्राचार्य अभयदेवसूरि प्रायः नित्य प्रति उपस्थित हुआ करते थे और नवांगी वृत्तिकार अभयदेवसूरि ने जिन नौ अंगों पर वृत्तियों की रचनाएं की, उनका संशोधन चैत्यवासी परम्परा के प्रधान प्राचार्य द्रोणाचार्य ने किया। अभयदेवसूरि के जीवनकाल में उनकी परम्परा का चैत्यवासी परम्परा के साथ किसी भी प्रकार के संघर्ष के होने का उल्लेख भी उपलब्ध जैनवांग्मय में अद्यावधि कहीं दृष्टिगोचर नहीं होता । इससे यही प्रतिफलित होता है कि अभयदेवसूरि के जीवन काल पर्यन्त चैत्यवासी परम्परा और सुविहित परम्परा के नाम से अभिहित की जाने वाली चैत्यवासी परम्परा के बीच सौहार्दपूर्ण वातावरण रहा । जिस समय जिनवल्लभसूरि टिप्पणी आ शु. ८ म.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org