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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग-४
१. यहां पागम के विरुद्ध कोई कार्य नहीं किया जायेगा। २. रात्रि में इन विधि चैत्यों में स्नात्र का आयोजन नहीं किया जायेगा। ३. इन विधि चैत्यों पर किसी भी साधु का किसी प्रकार का स्वामित्व नहीं
रहेगा। ४. इन विधि चैत्यों में रात्रि के समय कोई स्त्री प्रवेश नहीं कर सकेगी। । रात्रि में स्त्रियों का प्रवेश पूर्णतः निषिद्ध रहेगा। ५. इन विधि चैत्यों में जाति, वंश, कुल आदि का किसी प्रकार का
कदाग्रह नहीं रहेगा। ६. इन विधि चैत्यों में उपासक वर्ग ताम्बूल चर्वण कभी नहीं कर सकेगा।
जिनवल्लभसूरि के इस प्रकार के सुधारवादी एवं क्रान्तिकारी विचारों का जनमानस पर बड़ा ही चमत्कारपूर्ण प्रभाव हुआ । देश के कोने-कोने में जनमानस जिनवल्लभ गरिण की ओर आकृष्ट हुआ और लोग चैत्यवासी परम्परा का परित्याग कर महानदी के वेग की भांति विधि मार्ग के अनुयायी बनने लगे।
__ इस प्रकार जिस चैत्यवासी परम्परा के सुविशाल, सुगठित एवं शक्तिशाली संगठन को महान् क्रियोद्धारक वर्द्धमानसूरि के शिष्य श्री जिनेश्वरसूरि ने विक्रम सम्वत् १०८० में झकझोर डाला था, उसे विक्रम सम्वत् ११६५ के आगमन से पूर्व ही जिनवल्लभसूरि ने छिन्न-भिन्न, अशक्त और निष्प्रभावी बना डाला। चैत्यवासी परम्परा के निर्बल और निष्प्रभावी हो जाने से सुविहित परम्परा का अभ्युदय, उत्तरोत्तर प्रगति की ओर अग्रसर होने लगा।
सुविहित परम्परा के अन्दर आमूलचूल परिवर्तनकारी सर्वांगपूर्ण क्रियोद्धार के अभाव में अथवा सद्भाव के उपरान्त भी उसके सम्यग् रूप से क्रियान्वयन न होने के कारण श्रमण भगवान् महावीर के धर्मसंघ में जो गच्छभेद उत्पन्न हुए, उन गच्छभेदों की कालान्तर में एक प्रकार की बाढ़ सी आ गई। उन सब गच्छों के तत्कालीन पारस्परिक विद्वेष, कलह, वैमनस्य पूर्ण कार्य-कलापों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि यदि एकमात्र आगमों को ही आधार एवं सर्वोपरि मानकर पूर्ण क्रियोद्धार किया जाता और उस क्रियोद्धार का आगमों के निर्देश के अनुसार अक्षरशः अनुपालन किया जाता तो जिनवल्लभसूरि के प्रयास सम्पूर्ण जनसंघ को एकता के सूत्र में प्राबद्ध करने में सम्भवतः सफलकाम हो जाते । पर दुर्भाग्य की बात यह रही कि जिनवल्लभ की सुविहित परम्परा के विद्वानों ने ही कटू से कटतम पालोचना की और उनके द्वारा षष्ठ कल्याणक की प्ररूपणा ने तो सुविहित परम्परा के अन्य गच्छों को इतना अधिक उत्तेजित किया कि उन इतर गच्छों ने जिनवल्लभसूरि को अविधि मार्ग अर्थात् आगमिक विधि से विपरीत मार्ग पर चलने वाले मत का संस्थापक तक घोषित कर दिया ।
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