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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग - ४
जिनदत्तसूरि ने जिनशेखर को उपाध्याय पद प्रदान कर अपने विशाल शिष्य परिवार में से कतिपय मुनियों के साथ उन्हें रुद्रपल्ली जाने की प्राज्ञा प्रदान की । सबसे बड़ी महत्त्वपूर्ण उपलब्धि बागड़-विहार में जिनदत्तसूरि को यह हुई कि जयदेवाचार्य, जिनप्रभाचार्य, विमलचन्द्रगरिण, गुणचन्द्रगरिण, रामचन्द्रगरण और ब्रह्मचन्द्रगरि नामक छः महाप्रभावशाली लोकप्रिय चैत्यवासी प्राचार्यों ने अपने विशाल शिष्य परिवार के साथ जिनदत्तसूरि के उपदेशों से प्रबुद्ध हो उनके पास उपसम्पदा अंगीकार कर सुविहित परम्परा के धर्म की दीक्षा ग्रहरण की । चैत्यवासी रामचन्द्र गणी के पुत्र साधु जीवानन्द ने भी अपने पिता के साथ जिनदत्तसूरि की परम्परा में श्रमण धर्म की दीक्षा अंगीकार की । जयदत्त नामक एक प्रसिद्ध मंत्रवादी चैत्यवासी साधु ने भी जिनदत्तसूरि के पास पंचमहाव्रतों की भागवती दीक्षा ग्रहण की। अपने लोक विदित प्रभावशाली प्राचार्यों और साधु-साध्वियों को जिनदत्तसूरि के पास बड़ी संख्या में दीक्षित हुए देख चैत्यवासी परम्परा के अधिकांश श्रावक-श्राविका समूह जिनदत्तसूरि के उपासक बन गये । उसी अवसर पर जिन रक्षित एवं शीलभद्र नामक दो भ्राताओं ने अपनी माता के साथ तथा स्थिरचन्द्र एवं वरदत्त नामक दो भाइयों ने भी जिनदत्तसूरि के पास भागवती दीक्षा अंगीकार की ।
इस प्रकार बागड़ प्रदेश में जिनदत्तसूरि के विहार एवं उनके प्रभावकारी उपदेशों तथा चमत्कारों का परिणाम यह हुआ कि चैत्यवासी आचार्यों एवं बहुत बड़ी संख्या में चैत्यवासी श्रावक-श्राविकाओं द्वारा जिनदत्तसूरि को अपना गुरु बना लेने तथा भव्यात्मा युवक-युवतियों के श्रमण-श्रमणी धर्म में दीक्षित हो जाने जिनदत्तसूर का खरतरगच्छ एक शक्तिशाली गच्छ के रूप में उभर कर जन-जन के लिए आकर्षण केन्द्र का बिन्दु बन गया ।
अपने विशाल नवदीक्षित श्रमरण-श्रमणी परिवार में से विशिष्ट प्रतिभाशाली शिक्षार्थी जिनरक्षित, स्थिरचन्द्र श्रादि अनेक श्रमणों और श्रीमती, जिनमती एवं पूर्णश्री प्रभृति अनेक साध्वियों को जिनदत्तसूरि ने आगम आदि विद्याओं के अध्ययन हेतु धारा नगरी भेजा और स्वयं ने अपने विशाल सन्त सती परिवार के साथ रुद्रपल्ली की ओर विहार किया । मार्ग के एक गांव में व्यंतरबाधा से पीड़ित एक श्रावक को उस बाधा से मुक्त करने एवं धर्मनिष्ठ भक्तों के कल्याणार्थ जिनदत्तसूरि ने “गणधर सत्तरी" नामक मन्त्र गर्भित ग्रन्थ की रचना की । उस ग्रंथ को हाथ में रखने से उस श्रावक की व्यन्तरबाधा सदा के लिए दूर हो गई । इस चमत्कार से जिनदत्तसूरि की कीर्ति दूर-दूर तक फैल गई ।
रुद्रपल्ली के निकट पहुंचने पर श्रावकों के विशाल परिवार के साथ जिनशेखर उपाध्याय ने श्री जिनदत्तसूरि की अगवानी की और उन्हें बड़े हर्षोल्लास के साथ नगर प्रवेश करवाया। जिनदत्तसूरि के उपदेशों से रुद्रपल्ली में १२० प्रजैन
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