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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] जिनवल्लभसूरि
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के सम्बन्ध में लिखा है- “ तथा तत्शिष्यो विजयदान सूरिः क्रियोद्धार सहायकृत् तस्य शिष्यः पूर्वं खरतरगच्छ ः पश्चात् तपोगच्छाच ररणः, देवगिरौ श्री हीरविजयसूरीणां सहाध्यायी, गीर्वाणभाषाजल्पदक्षः, तीव्र बुद्धि:, प्रखर वादी, चतुविध वाद निष्णातः, श्री जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति (विक्रम सं० १६३६ ) कल्प किरणावली (विक्रम सम्वत् १६२८ दीपावल्यां राजधन्यपुरे ) – कुमति कुद्दालः -- प्रवचन परीक्षातपागच्छ पट्टावलिषु - तद्वृत्ति नयचक्र – ईर्यापथिका षट्त्रिंशिका वृत्तिः -- प्रौष्ट्रिक मतोत्सूत्रदीपिका (विक्रम सम्वत् १६१७ ) प्रमुख ग्रन्थानां प्रणेता उपाध्याय श्री धर्मसागरः । "
इस टिप्पण में स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि श्री धर्मसागर पहले खरतरगच्छ का साधु था और कालान्तर में तपागच्छ का अनुयायी हो गया । यद्यपि इस टिप्पण के अतिरिक्त अद्यावधि अन्यत्र कहीं इस प्रकार का उल्लेख उपलब्ध नहीं है, जिससे यह सिद्ध हो कि उपाध्याय धर्मसागर प्रथमतः खरतरगच्छ का साधु था और कालान्तर में उसने खरतरगच्छ को छोड़कर तपागच्छ परम्परा को अपनाया हो । ऐसी स्थिति में यदि इस टिप्पण को नितान्त निराधार न माना जाय तो यह अनुमान किया जाता है कि खरतरगच्छ के किसी प्राचार्य अथवा विद्वान् साधु से मतभेद हो जाने के कारण उपाध्याय धर्मसागर ने तपागच्छ को स्वीकार किया हो और उसी पारस्परिक मनोमालिन्य के कारण धर्मसागर ने खरतरगच्छ के विरुद्ध इस प्रकार विषवमन किया हो। इस पारस्परिक विद्वेष ने बहुत उग्र रूप धारण किया, इसकी पुष्टि प्राचार्यश्री विनयचन्द ज्ञान भण्डार, जयपुर में उपलब्ध एक प्राचीन पत्र की प्रतिलिपि से होती है, जिसमें लिखा है :
"श्री खरतरगच्छीय सुविहित साधुवर्ग के ऊपर द्वेषबुद्धि धरते थके तपगच्छी श्री विजयदानसूरि शिष्यधर्मसागर उपाध्याये तीस बोल सूत्र सूं विरुद्ध प्ररूप्या और पिण श्री अभयदेवसूरि परम्परादिक नीं मन कल्पित प्ररूपणा कीधी जे एहवा प्राचार्य खरतरगच्छ में न थाय इत्यादि श्रसम्बद्ध वचन भाख्या । ते वारे सम्वत् १६२७ कार्तिक सुदी सातम दिने शुक्रवासरे श्री पाटण नगर में श्री खरतरगच्छ नायक परम संवेगी परम वैरागी युग प्रधान गुरु श्री जिनचन्द्रसूरि समस्त दर्शनीए एकट्ठा करी शास्त्र पढाव्या । ते वारे सर्वगच्छीय गीतार्थ मिलि घरणा ग्रन्थ जोई, जोइयां पछे धर्मसागर
fastor | पछे छिपि रह्यो । न आवे तिवारे कार्तिक सुदि १३ सर्वदर्शन मिली चर्चा ए खोटी जारणी ने निन्हव थाप्यो, जिनदर्शन थी बाहर | शुद्ध मार्गी तपागच्छीय गीतार्थे पिण निन्हव जारणी तेहनो वचन प्रमारण न कीनो । हिवडा कितराइक कदाग्रही मन्दमति शास्त्रज्ञान हीन तपागच्छी पिरण ते उत्सूत्रवादी निन्हव ना वचन प्रमारण करे छे अने जिन वचन लोपे छे । ते बापडा घणूं संसार बधारस्यै । ............”
उपरिलिखित सब विवरणों को देखने से यह अनुमान किया जाता है कि
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