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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
चैत्यवासी प्राचार्य जिनेश्वरसूरि को जब उक्त घटना का विवरण ज्ञात हुआ तो उन्होंने मन ही मन विचार किया कि यह बालक वस्तुतः बड़ा ही होनहार और गुणसम्पन्न है । इसे शिष्य अवश्य बनाना चाहिये । वस्तुतः यह आगे चलकर बड़ा प्रभावक प्राचार्य सिद्ध होगा। इस प्रकार विचार कर जिनेश्वरसूरि ने जिनवल्लभ की माता को मधुर वचनों से प्रसन्न किया और उसे सभी भांति समझा बुझा कर उस बालक को अपना शिष्य बना लिया। अपनी परम्परा में जिनवल्लभ को दीक्षित कर जिनेश्वरसूरि ने उसे अनेक प्रकार की निमित्त ज्ञान आदि की विद्याओं का अध्ययन कराया। इस प्रकार क्रमशः चैत्यवासी मुनि जिनवल्लभ अनेक विद्याओं में निष्णात हो गया।
एक दिन जिनेश्वरसूरि को किसी आवश्यक कार्यवशात् ग्रामान्तर को जाने की आवश्यकता हुई। उन्होंने अपने मठ का कार्यभार पंडित जिनवल्लभ को समझाते हुए कहा : "मैं एक आवश्यक कार्य से ग्रामान्तर को जा रहा हूं शीघ्र ही काम निष्पन्न कर मैं लौट आऊंगा। जब तक मैं बाहर रहूं, मठ की सब प्रकार की गतिविधियों एवं कार्य कलापों की तुम देखरेख करते रहना।"
जिनवल्लभ ने अपने गुरु को आश्वस्त करते हुए कहा :-"आप निश्चिन्त रहिये, मैं सब कार्यों को यथाशक्ति भली-भांति देखता रहूंगा। पर आप से यही निवेदन है कि आप कार्य को शीघ्रातिशीघ्र निष्पन्न कर अविलम्ब लौटने की कृप' करें।"
जिनेश्वरसूरि के ग्रामान्तर की ओर चले जाने के अनन्तर दूसरे दिन जिनवल्लभ ने विचार किया :- "इस विशाल भंडार में अनेक मंजूषाएं पुस्तकों से भरी पड़ी हैं । इन पुस्तकों में क्या होगा? निश्चित रूप से इनमें ज्ञान भरा पड़ा होगा।" इस प्रकार विचार कर एक मंजूषा में से पुस्तकों का एक गंडलक खोला और उसमें से एक सिद्धान्त पुस्तक-पागम ग्रन्थ निकाल कर पढ़ना प्रारम्भ किया। उस आगम ग्रन्थ में लिखा था :
“यतिना द्विचत्वारिंशद्दोष विवजितः पिंडो गृहस्थगृहेभ्यो मधुकरवृत्या गृहीत्वा संयमहेतु देहधारणा कर्त्तव्या।"
इस आर्ष वचन को पढ़कर जिनवल्लभ के मन में हलचल-सी उत्पन्न हो गई। उसके मुह से हठात् निकल पड़ा--"आज हम यति लोगों का आचरण आगम वचनों से नितान्त विपरीत चल रहा है। हमारा इस प्रकार का आगम विरोधी आचारविचार हमें श्रेयस की ओर नहीं अपितु रसातल की ओर ले जाने वाला है।" उसने मन ही मन कुछ अस्फट संकल्प किया और उस पुस्तक तथा गंडलक को पुनः यथास्थान रखकर अपने स्थान पर विचारमग्न मुद्रा में बैठ गया। उसी समय आचार्य जिनेश्वरसूरि भी नामान्तर से अपने मठ में लौट आये । मठ की व्यवस्था में किसी प्रकार की
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