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जिनवल्लभसूरि (नवांगी वृत्तिकार अभयवेवसूरि के शिष्य)
महान् क्रियोद्धारक आचार्यश्री वर्द्धमानसूरि की खरतरगच्छ नाम से कालान्तर में प्रसिद्ध परम्परा में जिनवल्लभसूरि नामक एक महान् प्रभावक प्राचार्य हुए हैं । आप उच्च कोटि के पागम मर्मज्ञ, वादी, निमित्त शास्त्रज्ञ और क्रान्ति के दूत तुल्य मुनि पुंगव थे। आपका सम्पूर्ण जीवन संघर्षपूर्ण परिस्थितियों में व्यतीत हुआ। आपको न केवल अपने प्रतिपक्षी चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्यों से ही संघर्ष करना पड़ा, अपितु सुविहित नाम से अभिहित की जाने वाली कतिपय परम्पराओं के विद्वानों के संघर्ष का भी सामना करना पड़ा। चैत्यवासी परम्परा के साथ तो
आपका संघर्ष जीवन भर चलता रहा। चैत्यवासी परम्परा के वर्चस्व को समाप्त करने में महान् क्रियोद्धारक वर्द्धमानसूरि एवं महान् वादी जिनेश्वरसूरि के पश्चात् आप ही का सर्वाधिक योगदान रहा।
खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली में जो आपका जीवन परिचय उपलब्ध है उसके अनुसार आपका जन्म स्थान प्राशीदुर्ग था। शैशवकाल में ही प्रापके पिता का देहावसान हो गया था। अतः आपकी विधवा माता ने बड़े परिश्रम के साथ आपका लालन पालन किया । आशीदुर्ग में चैत्यवासी परम्परा के कूर्चपुरीय चैत्य के अधिष्ठाता आचार्य जिनेश्वरसूरि नामक चैत्यवासी आचार्य थे । इनके मठ में प्राशीदुर्ग के निवासी श्रावकों के पुत्र अध्ययनार्थ पाते थे। बालक जिनवल्लभ की माता ने भी अपने पुत्र को अध्ययन योग्य आयु में अध्ययनार्थ मठ में भेजना प्रारम्भ किया। शैशव काल से ही जिनवल्लभ की बुद्धि बड़ी कुशाग्र थी। उसने निष्ठा के साथ अध्ययन प्रारम्भ किया और स्वल्प समय में ही उसकी गणना मठ के सर्वश्रेष्ठ छात्र के रूप में की जाने लगी। मेधावी जिनवल्लभ ने अपनी कुशाग्र बुद्धि के बल पर अनेक विद्याओं में पारीणता प्राप्त की। एक दिन बालक जिनवल्लभ को एक प्राचीन टिप्पणक मिला। उसमें साकर्षणी और सर्पमोक्षरणी ये दो विद्याएं उल्लिखित थीं। बालक जिनवल्लभ ने ज्योंही साकर्षणी विद्या को पढ़ा तो उसके प्रभाव से सभी दिशाओं से सर्प द्रुत गति से उसकी ओर आने लगे । सब ओर से सर्पो को प्राते हुए देखकर बालक जिनवल्लभ के मन में रंच मात्र भी भय उत्पन्न नहीं हुआ। उसने तत्क्षण समझ लिया कि यह सब इस विद्या का ही प्रभाव है। उस ने तत्काल उस टिप्पणक में नीचे की ओर लिखी सर्पमोक्षणी नामक विद्या को पढ़ना प्रारम्भ किया । उस विद्या के पढ़ते ही सभी सर्प जिस ओर से आये थे उसी प्रोर लौट गये । बालक जिनवल्लभ भी उस टिप्पणक को साथ लिये मठ में अपने स्थान पर जा बैठा।
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