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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] जिनवल्लभसूरि
[ २४३ अभ्युन्नति हो । अतः उन्होंने अपने दो और साधुओं के साथ शुभ मुहूर्त में पट्टण से विहार कर जिनेन्द्र प्रभु द्वारा प्रदर्शित विधि धर्म के प्रचार-प्रसार के लक्ष्य से चित्रकूट आदि विभिन्न नगरों एवं प्रदेशों में विचरण किया। विहार क्रम से जिनवल्लभसूरि जिन-जिन ग्रामों, नगरों अथवा प्रदेशों में गये वहां उस समय तक चैत्यवासियों का पूर्ण वर्चस्व था। प्रायः वहां के सभी निवासियों के मन, मस्तिष्क और हृदय तक में चैत्यवासी परम्परा अपनी गहराई से जड़ जमाए हुए थी । इस प्रकार के क्षेत्रों में विधि मार्ग का प्रचार-प्रसार करते हुए जिनवल्लभसूरि चित्रकूट नगर में पधारे । चित्रकूट में वस्तुतः तब तक चैत्यवासियों का पूर्ण वर्चस्व था। अतः उन्हें प्रयास करने के उपरान्त भी कोई समुचित स्थान ठहरने के लिये नहीं मिला । वहां के चैत्यवासी श्रावकों ने नगर के बाहर निर्जन एकान्त स्थान में अवस्थित चण्डिका मठ की ओर इंगित करते हुए कहा कि उस चण्डिका मठ में तो आप ठहर सकते हैं । जिनवल्लभ गणि तत्काल ताड गये कि ये लोग इन्हें किसी दैवी संकट में डालने के अभिप्राय से मठ में ठहरने का कह रहे हैं। किन्तु इस प्रकार की प्रतिकूल परिस्थिति में निर्जन चण्डिका मठ में ठहरने के अतिरिक्त और कर ही क्या सकते थे । उन्होंने मन ही मन यह विचार कर कि उस निर्जन चंडिका मठ में ठहरने पर भी देवाधिदेव जिनेश्वरदेव एवं गुरुवर के कृपा प्रसाद से सभी प्रकार कल्याण ही होगा, उन लोगों से कहा- “यदि आपकी यही इच्छा है तो हम उस चंडिका मठ में ही ठहर जायेंगे।" तदनन्तर देव और गुरु का स्मरण कर तथा शासन देवी को अनुज्ञापित कर जिनवल्लभसूरि उस चंडिका मठ में जा ठहरे। जिनवल्लभसूरि के ज्ञान ध्यान एवं सदनुष्ठान से प्रसन्न हो शासन देवी उनकी सब प्रकार के अशुभ अनिष्टों से रक्षा करने लगी।
जिनवल्लभ सूरि के सम्बन्ध में चित्तौड़ के नागरिकों में यह बात विद्युत् वेग से फैल गई कि वे न केवल जैन दर्शन ही अपितु सभी भारतीय दर्शनों के पारदृश्वा विद्वान्, न्याय शास्त्र, तर्कशास्त्र, पाणिनी की अष्टाध्यायी, व्याकरण, ८४ प्रकार के नाटक शास्त्र, ज्योतिष शास्त्र (सर्वोत्कृष्ट पंच महाकाव्य, जयदेव कवि का शब्द सौष्ठव सम्पन्न भक्ति एवं शृगार रस से ओत-प्रोत गीतिकाओं) और छन्द शास्त्र के तलस्पर्शी प्रकाण्ड पण्डित हैं। इस प्रकार की प्रशंसापूर्ण प्रसिद्धि के प्रसृत होते ही सभी दर्शनों के विद्वान् और वेद वेदांगों के पारगामी ब्राह्मण विद्वान् उनके पास चण्डिका के मठ में आने लगे। जिस-जिस विद्वान् को जिस-जिस अपने प्रिय शास्त्र के विषय में जो-जो भी संशय थे उन संशयों को उन विद्वानों ने जिनवल्लभसूरि के समक्ष रखा। अपने समय के उच्च कोटि के उद्भट विद्वान् जिनवल्लभसूरि ने प्रमाण पुरस्सर युक्ति-संगत उत्तर से उन सभी विद्वानों के संशयों का परम सन्तोषकारी समाधान किया। सभी विद्वान् परम सन्तुष्ट हुए और उनके माध्यम से जिनवल्लभसूरि की यश-पताका पूरे नगर में लहराने लगी कि वस्तुतः वे सभी दर्शनों, सभी शास्त्रों और विद्याओं के प्रकाण्ड पण्डित हैं एवं ऐसे विद्वान्
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