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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
दक्षिण में जैन संध पर....
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लेख में शान्त के पुत्र लिंगा नामक एक लिंगायतों के सरदार तिरशैव की प्रशंसा करते हुए उसके द्वारा किये गये एक पवित्र कार्य का उल्लेख किया गया है कि उसने श्वेताम्बर जैनों के सिर काटे। यह शिलालेख दो दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। एक तो इस दृष्टि से कि शैवों के संहारक समूहों ने आन्ध्र प्रदेश में ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी के प्रथम चरण में जो जैनों का संहार प्रारम्भ किया था वह ईसा की सोलहवीं शताब्दी के प्रथम चरण तक कितना प्रलयंकर रूप धारण कर गया था। दूसरा इस दृष्टि से कि दक्षिण भारत में श्वेताम्बर जैनों का भी उस समय ऐसा प्राबल्य था कि उन्हें समाप्त करने की दिशा में भी धर्मोन्माद में उन्मत्त शैवों का ध्यान गया।
इस प्रकार जैसा कि पहले बताया जा चुका है जैनों पर अनेक बार देशव्यापी संकट आये। उनमें से पहला संकट था ईसा की सातवीं शताब्दी के प्रारम्भ काल में पल्लवराज कांचिपति महेन्द्रवर्मन एवं मदुरा के पांड्यराज सुन्दरपांड्य के शासनकाल में तिरु ज्ञान सम्बन्धर और तिरु अप्पर द्वारा शैवधर्म के उद्धार के रूप में जैनों के विरोध का अभियान । जैनों पर दूसरा संकट आया ईसा की सातवींआठवीं शताब्दी में प्रथमतः कुमारिल्ल भट्ट एवं तदनन्तर शंकराचार्य की दिग्विजयों के रूप में। यद्यपि प्रथम संकट सर्वाधिक घातक था। उसने थोड़े से समय में ही तमिलनाडु में शताब्दियों से सर्वाधिक शक्तिशाली धर्म संघ के रूप में रहे हुये जैनसंघ को थोड़े से समय में ही लुप्तप्रायः सा कर दिया। दूसरा जो संकट आया वह वस्तुतः शीतयुद्ध के रूप में लम्बे समय तक देशव्यापी अभियान रहा । इस दूसरे संकट में जैनों के संहार का एक भी पुष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं होता तथापि शंकराचार्य द्वारा भारत के सुदूरवर्ती विभिन्न दिशाओं और भागों में स्थापित किये गये पीठों के माध्यम से योजनाबद्ध रूप से ब्रह्माद्वैत सिद्धान्त का देशव्यापी प्रचारप्रसार अनवरत रूप से चलता रहा । इसके परिणामस्वरूप जैनों की प्रचार-प्रसारात्मक प्रगति अवरुद्ध होने के साथ-साथ शनैः शनैः जैन धर्मावलम्बियों की संख्या भी क्षीण होती चली गई।
जैनों पर तीसरा संकट रामानुजाचाय द्वारा ईस्वी सन् १११० के आसपास प्रारम्भ किये गये रामानुज वैष्णव सम्प्रदाय के प्रेभ्युदय-उत्थान परक अभियान के रूप में आया। ईस्वी सन् ११३०-३५ के आसपास लिंगायतों के उग्र रूप धारण कर लेने के परिणामस्वरूप जैनों पर आये हुये इस तीसरे संकट ने बड़ा ही भीषण रूप धारण कर लिया। जैनों के विरुद्ध प्रारम्भ किया गया लिंगायत सम्प्रदाय के अनुयायियों का यह अभियान वस्तुतः तिरु अप्पर और तिरु ज्ञान सम्बन्धर द्वारा तमिलनाडु में प्रारम्भ किए गए शैव अभियान के समान ही जैनों के लिए बडा घातक था। लिंगायतों का यह अभियान ईसा की पन्द्रहवीं, सोलहवीं शताब्दी तक के एक लम्बे समय तक अनेक चरणों में चलता रहा । अन्तिम चरण
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