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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
दक्षिण में जैन संघ पर........
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भी एक अच्छी अवधि तक वैष्णव धर्म के पुनरुद्धारक अथवा संस्थापक रामानुजाचार्य के पर्याप्त समय तक विष्णुवर्द्धन के राजप्रासाद में रहने से इस प्रकार की बात अथवा अफवाह लोक में प्रचलित हो जाना सहज स्वाभाविक ही है कि उसने जैनधर्म का परित्याग कर वैष्णवधर्म स्वीकार कर लिया है। इस प्रकार की अफवाह अथवा जन श्रुति के यत्र तत्र लोक में प्रचलित हो जाने के परिणामस्वरूप भी जैनों के मनोबल का ह्रास होना तथा वैष्णव एवं लिंगायत सम्प्रदायों के मनोबल का अभिवृद्ध हो जाना स्वाभाविक ही था । वस्तुतः यह तो एक ऐतिहासिक तथ्य है कि भारत में प्राचीन समय में जिस धर्म को राजवंश का आश्रय अथवा प्रश्रय जितना अधिक प्राप्त हुआ उतनी ही अधिक उस धर्म ने प्रगति की और राजवंशों का प्रश्रय न पा सकने की दशा में उस धर्म का सुनिश्चित रूप से ह्रास हुआ।
इस प्रकार शक्तिशाली चोल राजाओं की जैनधर्म के प्रति शत्रुतापूर्ण वृत्ति एवं लिंगायतों द्वारा जैनधर्मावलम्बियों के सामूहिक संहार के परिणामस्वरूप और सम्भवतः होय्सल राज विष्णुवर्द्धन की तटस्थवृत्ति के कारण भी जैनों को प्रबल आघात सहने पड़े। होय्सल महाराजा विष्णुगोप के मन्त्री गंगराय ने तथा होय्सलराज नरसिंहदेव के मन्त्री हल ने जैनधर्म को उसके पूर्व के प्रतिष्ठित पद पर अधिष्ठित करने के अनेक प्रयास किये । किन्तु रामानुज सम्प्रदाय के योजनाबद्ध विरोध एवं अन्ततोगत्वा लिंगायतों के सर्व संहारकारी घातक आक्रमणों के परिणामस्वरूप जैन धर्म का दक्षिण में उत्तरोत्तर ह्रास होता ही चला गया।
- इन सब विकट परिस्थितियों के उपरान्त भी जैनधर्म कर्णाटक प्रदेश में पूर्णतः नष्ट नहीं हुआ । अपने वर्चस्व के इस ह्रासोन्मुख संक्रान्तिकाल में भी अच्छी संख्या में जैन कर्णाटक प्रदेश में विद्यमान रहे । मैसूर के उत्तरवर्ती राजवंश द्वारा जैन धर्मावलम्बियों को समय-समय पर सहायता भी प्राप्त होती रही। विदेशी शासकों की भी जैनों के साथ यत्किचित् उदारतापूर्ण वृत्ति ही रही । उदाहरणस्वरूप हैदर नाइक ने जैन मन्दिरों को ग्रामदान भी किये।
ईस्वी सन् १३२६ के आसपास मुस्लिम आक्रान्ताओं ने होय्सल राज्य को उखाड़ फेंका । मुसलमानों के आक्रमणों से जो अराजकता उत्पन्न हुई उस अराजकता के परिणामस्वरूप विजयनगर में एक शक्तिशाली हिन्दू राज का अम्युदय हुआ। विजयनगर के चालुक्यवंशी राजा प्राय: वैष्णव धर्मावलम्बी रहे और उनके मन्त्री भी अधिकांशतः ब्राह्मण ही रहे । इस कारण जैन धर्मावलम्बियों को अपनी शक्ति के संचय का तो कोई अवसर नहीं मिला, किन्तु विजयनगर के शासकों ने वैष्णवधर्मावलम्बियों द्वारा जैन धर्मावलम्बियों के विरुद्ध किये गये अभियानों से जैनधर्मावलम्बियों की रक्षा अवश्य की। विजय नगर के किसी भी राजा ने किसी जैन को
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