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जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
का अाग्रह करने लगा। जैनों ने अपनी प्रतिज्ञा को भंग किया और वे अपनी वसतियों में ही बने रहे। प्रतिज्ञा विमुख जैनों पर एकान्तद रमैया बड़ा क्रुद्ध हुआ
और उसने उसी समय जैनों के आराधना स्थलों को नष्ट करना प्रारम्भ कर दिया। जैनों ने महाराज विज्जल के समक्ष उपस्थित होकर एकान्तद रमैया के विरुद्ध अपना अभियोग रक्खा । एकान्तद रमैया भी विज्जल के समक्ष उपस्थित हुआ और उसने जैनों तथा अपने बीच हुई प्रतिज्ञा को दोहराते हुए कहा :-"मैं पुन: आपके समक्ष अपने सिर को काटकर और भगवान् शंकर के कृपाप्रसाद से पूनः उसे प्राप्त करने का चमत्कार दिखाने को कटिबद्ध हूं।" यह कहते हुए एकान्तद रमैया ने अपना सिर पुनः अपने हाथ से ही काटकर तत्काल यथावत् रूप में फिर प्राप्त कर लिया। इस चमत्कार को देखकर महाराजा विज्जल को शैव धर्म पर पूर्ण प्रतीति हो गई और उसने जैनों को अपने राज प्रासाद से तत्काल बाहर चले जाने का आदेश देते हुए कहा :--"अब तुम सब लोग शैबों के साथ में पूर्णतः शान्तिपूर्ण व्यवहार रखो।" .
यह है कलचुरी राज्य के विशाल साम्राज्य में पराजय के साथ जैनों के ह्रास की कहानी । इस कथानक में आगे यह भी बताया गया है कि जैनों ने अपनी प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिये अनेक बार प्रयास किये किन्तु उन्हें एक बार भी सफलता प्राप्त नहीं हुई । . इसके अतिरिक्त जैनों के ह्रास के सम्बन्ध में अनेक प्रकार के लोक कथानक प्रचलित हुए। एक कथानक में कहा गया है कि होयसल राजवंश अपने उदय के साथ ही जैनधर्म का प्रबल समर्थक रहा किन्तु इस वंश के बिट्टी देव नामक एक बड़े शक्तिशाली राजा ने, जिसका कि शासनकाल ईस्वी सन् ११११ से ईस्वी सन् ११४१ तक रहा, 'अपने शासन के उत्तरार्द्ध काल में रामानुजाचार्य के प्रभाव में आकर वैष्णवधर्म स्वीकार कर लिया और अपना नाम विष्णुवर्द्धन रक्खा । इससे भी जैनधर्म का उत्तरोत्तर ह्रास ही होता चला गया।
जहां तक विट्टीदेव विष्णूवर्द्धन के धर्म परिवर्तन का प्रश्न है, इसी इतिहासमाला के तृतीय भाग में प्रमाण पुरस्सर यह प्रतिपादित किया गया है कि विष्णूवर्द्धन ने चोलों के षड्यन्त्र से येन केन प्रकारेण बच कर अपने यहाँ आये हुए रामानुजाचार्य को अपने राज प्रासाद में आश्रय दिया और पर्याप्त समय तक उन्हें अपने यहां रखा भी किन्तु उसने धर्म परिवर्तन नहीं किया। वह अन्त तक जैनधर्म का अनुयायी ही बना रहा। उसकी महारानी शान्तल देवी भी जैन धर्म की प्रबल पक्षपातिनी थी। वह भी अन्त समय तक आचार्य प्रभाचन्द्र की परम भक्त श्राविका बनी रही।
विट्टीदेव विष्णूवर्द्धन के आश्रय में रामानुजाचार्य के पर्याप्ति समय तक रहने के परिणामस्वरूप लोगों में सम्भव है इस प्रकार की बात फैल गई हो कि विष्णूवर्द्धन ने वैष्णवधर्म स्वीकार कर लिया है । धर्म परिवर्तन न किये जाने के उपरान्त
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