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जैन धर्म संघ पर दक्षिणपथ में पुनः संकट के
घातक घने काले बादल
प्रस्तुत ग्रन्थमाला के तृतीय पुष्प में विस्तार के साथ प्रामाणिक शिलालेखों और ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर यह बताया जा चुका है कि गंग, कदम्ब, राष्ट्रकूट और होय्सल राजवंशों के शासन काल में दक्षिण में जैनधर्म की, जैन संघ की, उल्लेखनीय अभिवृद्धि हुई। उनके राज्यकाल में जैनधर्म की गणना दक्षिण के धर्मों में एक प्रमुख धर्म के रूप में की जाने लगी थी। ईसा की दूसरी शताब्दी से ईसा की सातवीं शताब्दी तक दक्षिण में जैनधर्म बहुजन सम्मत सर्वाधिक वर्चस्वशाली एवं शक्तिसम्पन्न धर्म माना जाता रहा। वीर निर्वाण सम्वत् १५०१ तदनुसार ईस्वी सम्वत् ६७४ में राष्ट्रकूट वंशीय राजा इन्द्र चतुर्थ के संलेखनापूर्वक देहावसान हो जाने पर पश्चिमी चालुक्यों का शासन काल आया।
पश्चिमी चालुक्यों के शासन काल में जैनधर्म की प्रगति एक प्रकार से अवरुद्ध सी हो गई । राज्याश्रय के कारण जैनधर्म एक सर्वाधिक वर्चस्वशाली धर्म माना जाता था वह पश्चिमी चालुक्यों के शासनकाल में राज्याश्रय न मिलने से शनैः शनैः गौरण होता चला गया। जैन वसतियों में से जैनों के आराध्यदेवों की मूर्तियां अनेक क्षेत्रों में उखाड़ कर फेंक दी गईं। जैन प्रतिमाओं के स्थान पर पौराणिक शैव अथवा वैष्णव मूर्तियां प्रतिष्ठापित कर दी गईं। किन्तु इस प्रकार की स्थिति अधिक समय तक नहीं चली । ईस्वी सन् ११२६ में कल्चुरी राजा विज्जल ने चालुक्य राज के सिंहासन पर अधिकार कर अपने आपको सार्वभौम महाराजा घोषित किया। विज्जल के प्रारम्भिक शासनकाल में जैनधर्म की पुनः चौमुखी प्रगति प्रारम्भ हुई। विज्जल स्वयं जैन था और उसने अपने आपको चक्रवर्ती घोषित किया था। इस समय जैन संघ ने अपनी खोई हुई शक्ति को पुनः सुगठित किया और पुनः एक शक्तिशाली धर्मसंघ का रूप धारण करने लगा। किन्तु जैनधर्म का यह वर्चस्व वस्तुतः अस्त होते हुए दीपक की टिमटिमाहट के समान ही था। महाराजा विज्जल का बसवा नामक एक मन्त्री गुप्त रूप से लिंगायत धर्म का प्रचार करने लगा और अपने इस धर्म के प्रचार के लिये वह कल्याणी के राज्यकोष को अपनी इच्छानुसार व्यय करने लगा। अन्ततोगत्वा जब विज्जल को यह ज्ञात हुआ कि उसका राजद्रोही मन्त्री बसवा अपने राज्यकोष से बहुत बड़ी धनराशि लिंगायत धर्म के प्रचार
१. (अ) श्रवणवेलगोल शिलालेख संख्या ५७ (9) Shravan belgol Inscriptions, by. b
Appendix B. page 71
Lewis Pice M. R. A. S.,
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