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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ "सह नौ वीर्य करवावहै" हम मिल कर एक जुट हो सर्वांगीण अभ्युदयोत्कर्ष एवं समष्टि के कल्याण के लिए पौरुष प्रकट करें-इस, स्व-पर तथा समष्टि के लिये कल्याणकारी महामन्त्र को भूल कर भारतीय स्वार्थ के वशीभूत हो केवल अपनी सुख-सुविधा एवं समृद्धि के लिये ही प्रयत्नशील रहने लगे । सामूहिक शक्ति छिन्न-भिन्न हो गई। सबल सम्पन्न वर्ण एवं वर्ग अपने से निर्बल वर्ण अथवा वर्गों से, सबल जातियां निर्बल जातियों से और शक्ति-सम्पन्न राजा लोग अपने आपको और अधिक सशक्त बनाने के प्रयास में परस्पर लड़ने लगे। जो शक्ति अपने देश एवं देशवासियों के सर्वांगीण विकास, अभ्युदय-उत्कर्ष में पुरातन काल से लगती चली आ रही थी, वह सम्पूर्ण शक्ति स्वार्थाभिभूत भारतीयों द्वारा परस्पर एक-दूसरे को दबाये रखने, क्षीण बनाने, अशक्त बनाने और यहां तक कि मार डालने अथवा नष्ट करने में व्यर्थ ही व्यय होने लगी। राष्ट्रीय भावना एक प्रकार से पूर्णतः विलुप्त हो गई। अल्पसंख्यक वर्गों, वर्गों अथवा जातियों का वर्चस्व पृथक्-पृथक् क्षेत्रों में खण्डित-विखण्डित रूप में छा गया। साधन-सम्पन्न अल्पसंख्यक जातियों ने अपने आपको सवर्ण एवं सभी प्रकार की सुख-सुविधाओं का सर्वोच्च अधिकारी घोषित कर बहुसंख्यक साधनविहीन अथवा विपन्न जातियों को अछूत, शूद्र आदि संज्ञा से अभिहित कर उन्हें न केवल राजनैतिक, सामाजिक एवं शैक्षणिक अधिकारों से ही. अपितु उनके जन्मसिद्ध मानवीय अधिकारों तक से वंचित कर दिया।
इस सबका घोर दुष्परिणाम यह हुआ कि भारत की कुल जनसंख्या का एक बहुत बड़ा भाग देश की राजनीति से एकदम उदासीन हो गया। राष्ट्रीय भावना के विलुप्त हो जाने और शासकों के परस्पर लड़ते-झगड़ते रहने के कारण राष्ट्रव्यापी प्रभुसत्ता का अस्तित्व तक अवशिष्ट नहीं रहा। इस सबके परिणामस्वरूप देश की सुरक्षा की ओर ध्यान देने वाली किसी सर्वोच्च शक्ति अथवा राजसत्ता का भारत में विक्रम की दशवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के पश्चात् कोई चिह्न तक नहीं रहा । देश में एक सार्वभौम सत्ता के अभाव के परिणामस्वरूप देश की सुरक्षा के लिये साधन जुटाने, धन लगाने आदि की दिशा में किसी का ध्यान नाममात्र के लिये भी आकर्षित नहीं हा। भारत में उस समय धन सम्पदा का किंचित्मात्र भी अभाव नहीं था। सम्पूर्ण देश बड़ा सम्पन्न एवं समृद्ध था, इसी कारण विदेशियों ने भारत को सोने की चिड़िया की संज्ञा दी । सार्वभौम प्रभुसत्ता के अभाव में सुरक्षा के लिये जो धन लगाया जा सकता था उसका व्यय कलाकृतियों के .. ोक विशाल भवनों, मन्दिरों और सोने की रत्नजटित भारी भरकम मूर्तियों के निर्माण में होने लगा । अपार सम्पदा के निधान तुल्य उन भवनों एवं मन्दिरों की सुरक्षा का भी समुचित प्रबन्ध न होने के कारण वे वस्तुतः विदेशियों को भारत पर आक्रमण करने हेतु निमन्त्रण देने वाले आकर्षण केन्द्र एवं उन्हें पुनः पुनः भारत की ओर आमन्त्रित करने वाले अग्रदूत ही सिद्ध हुए। यदि भारत में उस समय सार्वभौम शक्तिशाली प्रभुसत्ता होती तो उस दशा में न तो इतनी अतुल-अमित सम्पदा
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