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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
प्रगाढ़ विनय-भक्तिपूर्ण शब्दों का प्रयोग किया है अपितु चैत्यवासी परम्परा के निर्वृ तककुलीन आचार्य द्रोण की भी भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुए "ज्ञाताधर्म कथांग” की वृति में लिखा है :
निर्वृ तककुलनभस्तलचन्द्रद्रोणाख्यसूरिमुख्येन । पण्डितगुणेन गुणवत्प्रियेण संशोधिता चेयम् ।। १० ।।
इस प्रकार अपने गुरु, गुरु के भ्राता, प्रगुरु और चैत्यवासी परम्परा के विद्वान् आचार्य द्रोण की तो अभयदेव सूरि ने भूरि-भूरि प्रशंसा की किन्तु अपने प्रगुरु को विशुद्ध श्रमरण धर्म की उपसंपदा अथवा दीक्षा तथा आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान प्रदान करने वाले उद्योतनसूरि का कहीं कोई किंचित्मात्र भी उल्लेख नहीं किया है । यह देखकर प्रत्येक विज्ञ के अन्तर्मन में आश्चर्य के साथ-साथ भांति-भांति के ऊहापोहों का उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है ।
अभयदेवसूरि द्वारा अपने पूर्वाचार्यों का स्मरण किये जाने के समय अपनी परम्परा के आदि प्राचार्य श्री उद्योतनसूरि के नाम का उल्लेख नहीं किये जाने से इतिहास में अभिरुचि रखनेवाले प्रत्येक प्रबुद्ध पाठक के मन में यह विचार उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है कि वर्द्धमानसूरि ने चैत्यवास का परित्याग करने के अनन्तर मूल-श्रमरण परम्परा अथवा सुविहित श्रमण परम्परा के किन प्राचार्य के पास चारित्रिक उपसंपदा अंगीकार करने के साथ-साथ आगमों का अध्ययन किया । खरतरगच्छ पट्टावली में उद्योतनसूरि के पास उपसंपदा और आगमों का ज्ञान ग्रहण का स्पष्ट उल्लेख है तो उन उद्योतनसूरि के तृतीय पट्टधर अभय देवसूरि जैसे विद्वान् आचार्य ने अपने आदि आचार्य के रूप में उनका नामोल्लेख तक किस कारण नहीं किया ? चैत्यवास का परित्याग करने के पश्चात् वर्द्धमानसूरि ने विशुद्ध मूल श्रमण परम्परा में उद्योतनसूरि अथवा अन्य किसी प्राचार्य के पास उपसंपदा श्रवश्यमेव ग्रहण की। यदि उद्योतनसूरि के पास उपसंपदा ग्रहरण की तो वे उद्योतनसूरि किस मूलं अथवा किस परम्परा के प्राचार्य थे । तपागच्छ पट्टावली में जिन उद्योतनसूरि को श्रमण भगवान् महावीर का ३५वां पट्टधर बताया गया है, वे उद्योतनसूरि तो, जैसाकि बताया जा चुका है, वर्द्धमानसूरि के गुरु हो नहीं सकते क्योंकि वि० सं० १६४ में उन उद्योतनसूरि ने जिन मुनियों को वटवृक्ष के नीचे प्राचार्य पद प्रदान किया, उन मुनियों में वर्द्धमानसूरि का कहीं कोई नामोल्लेख तक उपलब्ध नहीं होता । यदि मान भी लिया जाय कि आठ शिष्यों को प्राचार्य पद प्रदान किया, उनमें सम्भवतः वर्द्धमानसूरि भी सम्मिलत हों तो उस दशा में भी वि० सं० ६६४ में प्राचार्य पद पर श्रासीन किये गये वर्द्धमानसूरि वि० सं० १०८० में अर्थात् प्रौढ़ावस्था में प्राचार्य पद पर श्रारूढ़ होने के ८६ वर्ष पश्चात् तक दुर्लभराज की सभा में चैत्यवासियों के साथ हुए शास्त्रार्थ में उपस्थित रह सके हों, यह संभव प्रतीत नहीं होता । जैसा कि खरतरगच्छ के श्रीपूज्यों की पूरक पट्टावलियों में उद्योतनसूरि नाम के शिष्य संतति
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