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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] जिनेश्वरसूरि
[ १३७ टूट-फूट कर पूर्णतः नष्ट हो गया। शिलालेख को नष्ट हुआ देखकर लक्ष्मीपति बड़ा दुःखित हुआ।
दूसरे दिन श्रेष्ठी जिस समय चिन्तासागर में निमग्न बैठा था, उस समय श्रीपति और श्रीधर उसके घर पर आये। उन्हें भी अग्नि के ताण्डव से हुए विनाश को देखकर बड़ा दुःख हुआ । श्रीपति ने उस उदारमना श्रेष्ठि के दुःख में भागी होते हुए सान्त्वनापूर्ण शब्दों में कहा-"श्रेष्ठिवर ! इस आकस्मिक अग्निप्रकोप से जो आपकी सम्पत्ति की हानि हुई है, उससे हमें भी बड़ा दुःख हुआ है । संसार में सुख-दुःख, हानि-लाभ और जीवन-मरण का क्रम धूप और छाया के समान अपरिहार्य अनवरत क्रम की भांति अटल है । आप जैसे विज्ञ एवं धैर्यशाली मनस्वी को इस प्रकार अधीर नहीं होना चाहिये । भीषण से भीषणतम संकटापन्न स्थिति में भी धैर्य से विचलित नहीं होना-यही तो धीर मनस्वियों का प्रथम लक्षण है। साहस के सम्बल को सम्हालिये । आपके जिस साहस एवं सूझ-बूझ भरे बुद्धिबल ने आपको धन कुबेरोपम वैभव का स्वामी बनाया है, वही आपको अब भी पुनः पूर्ववत् बनायेगा।
गहरी दीर्घनिश्वास के साथ श्रेष्ठी लक्ष्मीपति के कण्ठरव से ये उद्गार उद्भूत हुए-"ब्रह्मकुमारो ! मुझे अन्न वस्त्र, भाण्डोपकरणादि सम्पत्ति के नष्ट हो जाने का कोई विशेष दुःख नहीं है, मुझे सबसे बड़ा दुःख तो इस प्राचीन शिलालेख के पूर्णतः ध्वस्त हो जाने का है । सम्पत्ति तो पुनः उपाजित कर ली जायेगी परन्तु यह महत्त्वपूर्ण प्राचीन शिलालेख तो अब पुनः किसी भी तरह तैयार नहीं किया जा सकेगा।"
श्रेष्ठी लक्ष्मीपति की बात सुनते ही दोनों भाइयों के मुखमण्डल अाशा एवं उमंगों से प्रोत-प्रोत उत्साह के तेज से उद्दीप्त हो उठे। दोनों भाइयों ने श्रेष्ठि को आश्वस्त करते हुए सोत्साह एक साथ कहा-"श्रेष्ठिवर ! यदि आप इसी चिन्ता से चिन्तित हैं, तो इसी क्षण निश्चिन्त हो जाइये । हम दोनों भाइयों ने उस अभिलेख को पढ़ा तो हमें वह धार्मिक, सामाजिक और वंश परम्परानुगत कौटुम्बिक आदि सभी दृष्टियों से बड़ा ही महत्त्वपूर्ण एवं मननीय प्रतीत हुआ । इसी कारण हम दोनों भाइयों ने उसे उत्कण्ठापूर्वक पुनः पुनः पढ़ा है और वह सम्पूर्ण शिलालेख हमें अक्षरशः कण्ठस्थ हो गया है। जिस रूप में वह अभिलेख था, उसी रूप में उसका पुनरालेखन कर हम आपको दे देंगे।"
अपूर्व आश्चर्य से अवाक् बना श्रेष्ठी कतिपय क्षणों तक तो उन दोनों ब्रह्मकुमारों की ओर अपलक देखता ही रह गया । तदनन्तर आश्वस्त हो अगाध शान्ति के सागर में सुस्नात सस्मित स्वर से समस्त वातावरण में सुधा सी घोलते हुए श्रेष्ठी ने कहा-"धन्य हैं आप! इस प्रकार की स्थिति में तो मेरा कुछ भी नष्ट नहीं हुआ, सब कुछ सुरक्षित ही है।"
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