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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास भाग-४ प्रकार की अनागमिक मान्यताएं, अनेक प्रकार के आगम विरुद्ध विधि-विधान अनुष्ठान, बाह्याडम्बर आदि कतिपय तो अपने मूल स्वरूप में और कतिपय परिवर्तित स्वरूप में आज भी सुविहित कहलाई जाने वाली परम्परात्रों में उनके प्रमुख धार्मिक कृत्यों के रूप में विद्यमान हैं।
दूसरी ओर द्रोणाचार्य की इस अद्भुत् सूझबूझ और अचिन्त्य दूरदर्शिता का दुःखद दुष्परिणाम सुविहित परम्परा अथवा वसतिवासी परम्परा के लिए यह हुया कि धर्म के विशुद्ध मूल स्वरूप में चैत्यवासियों द्वारा प्रविष्ट की गई अनेक प्रकार की विकृतियों और चैत्यवासी परम्परा द्वारा विशुद्ध श्रमणाचार में आमूलचूल प्रविष्ट किये गये शिथिलाचार को मूलतः नष्ट कर इन दोनों के विशुद्ध मूल स्वरूप को पुनः प्रतिष्ठापित करने के जिस लक्ष्य से वसतिवासी परम्परा की चैत्यवासी परम्परा के गढ़ पाटण में प्रतिष्ठापना की गई थी, उस लक्ष्य की प्राप्ति वीर निर्वाण की २०वीं शताब्दी तक सुचारु-रूपेण प्राप्त नहीं हो सकी। द्रोणाचार्य की .दूरदर्शितापूर्ण समन्वयवादी नीति ने, उनके मेल-जोल, सम्पर्क-सहयोग ने धर्म का विशुद्ध मूल स्वरूप प्रकट करने के लिए कटिबद्ध हुई वसतिवासी परम्परा की धर्म क्रान्ति को एक लम्बे समय तक के लिये ठण्डा कर दिया। एक मात्र आगम के आधार पर सब प्रकार की विकृतियों को दूर कर धर्म के विशुद्ध स्वरूप और विशुद्ध श्रमणाचार की पुनः प्रतिष्ठापना का वर्द्धमानसूरि का स्वप्न द्रोणाचार्य की अनूठी सूझबूझ के परिणामस्वरूप साकार नहीं हो सका।
द्रोणाचार्य के जीवन का यह एक ऐसा महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक पहलू है जिसकी मोर तथ्यान्वेषी शोधप्रिय विद्वानों को अग्रेतर शोध करने की आवश्यकता है। आशा है वे इस दिशा में गहन खोज कर द्रोणाचार्य के जीवन की घटनाओं पर विशेष प्रकाश डालने का प्रयास अवश्यमेव करेंगे।
इस वास्तविकता को तो प्रत्येक जैन स्वीकार करेगा कि द्रोणाचार्य की दूरदर्शिता ने उन्हें सुविहित परम्परा में भी अमर बना दिया । जब तक अभयदेवसूरि द्वारा निर्मित नवाङ्गी वृत्तियां प्रचलित रहेंगी तब तक अभयदेवसूरि के साथ साथ द्रोणाचार्य का नाम भी साधकों द्वारा स्मरण किया जाता रहेगा।
अभयदेवसूरि के प्रति समन्वयपरक पारस्परिक सहयोग का हाथ बढ़ा उनके प्रति असीम सम्मान प्रदर्शित कर द्रोणाचार्य ने उनके (अभयदेवसूरि) द्वारा निर्मित वृत्तियों को संशोधित करने की उनसे स्वीकृति प्राप्त कर उन वृत्तियों को शोधित भी किया इससे प्रत्येक विज्ञ सहज ही अनुमान लगा सकता है कि सम्भवतः द्रोणाचार्य ने वृत्तियों का संशोधन करते समय अपनी चैत्यवासी परम्परा की कतिपय मान्यताओं को भी इन वृत्तियों में समाविष्ट करने का प्रयास किया हो । अभयदेवसूरि के प्रति आश्चर्यकारी सम्मान प्रकट कर उनका प्रगाढ़ विश्वास प्राप्त
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