________________
सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] द्रोणाचार्य
[ १६५ अङ्गवृत्तियों का द्रोणाचार्य से संशोधन करवा कर उन वृत्तियों को सवभोज्ञा बनाया। ये वृत्तियाँ अभयदेवसूरि द्वारा निर्मित हैं, इस दृष्टि से सुविहित परम्परा के साधु, साध्वी,श्रावक और श्राविका वर्ग उन्हें प्रामाणिक मानने लगे तो दूसरी ओर ये वृत्तियाँ हमारे महान् प्रधानाचार्य द्रोणाचार्य द्वारा संशोधित की गई हैं, इस दृष्टि से चैत्यवासी परम्परा के सब अनुयायी भी उन वृत्तियों को सुविहित परम्परा की भांति ही परम प्रामाणिक मान कर आगमों का गहन ज्ञान प्राप्त करने के लिये उन वृत्तियों का उपयोग भी करने लगे। उन वृत्तियों की सहायता से अपने शास्त्रज्ञान को उत्तरोत्तर अभिवृद्ध करने लगे।
जहाँ इस प्रकार का सहयोग आगम की प्रामाणिकता के संबंध में संभव हो जाता है तो सहज ही यह विश्वास किया जा सकता है कि छोटी-मोटी अन्यान्य मान्यताओं रीति-रिवाजों, विधि-विधानों आदि के संबंध में भी द्रोणाचार्य की उस दूरदर्शिता के फलस्वरूप आदान-प्रदान, मानना-मनवाना, हठाग्रह छोड़ कर परस्पर एक-दूसरे की छोटी-बड़ी सभी प्रकार की मान्यताओं को अपने-अपने संघ में सम्मिलित करना आदि बातों पर दोनों परम्पराओं के कर्णधार अवश्यमेव मतैक्य पर पहुँचे होंगे।
आज सुविहित परम्परा में जितनी भी अनागमिक मान्यताएँ जितने भी पागम प्रतिपंथी रीति-रिवाज, क्रिया-कलाप, अनुष्ठान, आयोजन आदि प्रचलित हैं, “एक मात्र गणधरों एवं चतुर्दशपूर्वधरों द्वारा ग्रथित आगम ही हमारे लिये प्रामाणिक हैं, आगमों के अतिरिक्त इतर कुछ भी प्रामाणिक नहीं'-इस प्रकार का उद्घोष विक्रम सं. १०८० में अनहिलपुरपत्तन की राज्य सभा में करने वाली वसतिवासी परम्परा में नियुक्ति, भाष्य, चूणि और बृत्ति साहित्य आगम के तुल्य ही मान्य दृष्टिगोचर हो रहा है, वह सब आचार्य द्रोण की अनोखी सूझ-बूझ एवं अद्भुत दूरदर्शिता का ही प्रतिफल है । यह स्पष्ट प्रतीत होता है ।
इस प्रकार चैत्यवासी परम्परा के प्रधानाचार्य द्रोणसूरि ने अपनी परम्परा की गिरती हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्रतिष्ठित किया, अपनी परम्परा के ढहते हुए गढ़ को धूलिसात् होने से बचा कर अपनी प्रतिपक्षी वसतिवासी परम्परा के साथ सम्पर्क बढ़ा पाटण को पुनः अपनी परम्परा के एक सुदृढ़े गढ़ का स्वरूप प्रदान किया। द्रोणाचार्य की इस दूरदर्शिता का चैत्यवासी परम्परा के लिए तो सबसे बड़ा सुखद परिणाम यह हुआ कि जो चैत्यवासी परम्परा विक्रम की ग्यारहवी शताब्दी के समाप्त होने के साथ-साथ ही इस आर्यधरा से समाप्त होने वाली थी, वह पुनरुज्जीवित हो उठी और विक्रम की १७वीं शताब्दी के अन्तिम चरण तक येन-केन प्रकारेण अपने अस्तित्व को बनाये रखने में सफल हो सकी। अन्ततोगत्वा विक्रम की १७वीं शती में चैत्यवासी परम्परा समाप्त तो हो गई पर द्रोणाचार्य की सूझबूझ और दूरदर्शिता के परिणामस्वरूप चैत्यवासी परम्परा द्वारा आविष्कृत अनेक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org