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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड-२ ]
जिनेश्वरसूरि
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दूसरे दिन प्रातःकाल उन तीनों बहन भाइयों ने नदी में स्नान किया और तत्पश्चात् वे उपाश्रय में विराजमान श्री वर्द्धमानसूरि की सेवा में उपस्थित हुए । वन्दन नमन के अनन्तर उन्होंने वर्द्धमानसूरि से प्रार्थना की :-"महात्मन् ! आप हमें वैकुठ वास प्रदान करें।"
वर्द्धमानसूरि ने अन्तस्तलवेधी दृष्टि से उनकी ओर देखा। उनमें से एक बड़े भाई शिवदास (के मस्तक के केशजाल में एक छोटी सी मछली उलझी हुई थी । जलप्राणा मछली जल से बाहर निकाल दिये जाने के कारण जलाभाव में मर चुकी थी। वर्द्धमानसूरि ने मरी हुई उस मछली की ओर इंगित किया और जैन धर्म की आधार शिला स्वरूपा दया भगवती पर प्रकाश डालते हुए वैकुठ प्रदायी श्रमणाचार का स्वरूप उन्हें समझाया। वर्द्धमानसूरि के मुखारविन्द से वैकुंठवास (मोक्ष) प्राप्ति के सच्चे मार्ग को सुनकर उन तीनों बहिन-भाइयों के अन्तःकरण-मनमस्तिष्क में मोक्ष मार्ग पर अग्रसर होने की उत्कट आकांक्षा उत्पन्न हुई । उन तीनों मुमुक्षु भव्यात्माओं ने वर्द्धमानसूरि से जीवन-पर्यन्त सर्व सावद्य-विरति स्वरूप पंच महाव्रतों की दीक्षा ग्रहण की । गुरु ने दीक्षा प्रदान करते समय शिवदास का नाम जिनेश्वर रखा। मुनि जिनेश्वर और बुद्धि सागर ने पूर्ण निष्ठा एवं प्रगाढ़ श्रद्धापूर्वक अपने गुरु वर्द्धमानसूरि से प्रागमों का अध्ययन किया। उत्कृष्ट लगन और कठोर परिश्रम के परिणाम-स्वरूप उन बन्धुद्वय मुनियों ने सभी सैद्धान्तिक शास्त्रों में निष्णातता प्राप्त की।
वर्द्धमानसूरि से एक दिन जिनेश्वर मुनि ने निवेदन किया कि यदि गुर्जर प्रदेश में विचरण कर धर्म का प्रचार किया जाए तो जिनशासन की बड़ी उन्नति हो सकती है । वर्द्धमानसूरि ने कहा :- "वहां चैत्यवासियों का एकाधिपत्य परक प्रबल प्रभाव है अतः पग-पग पर उनकी अोर से अनेक प्रकार के उपसर्ग-उपद्रव उपस्थित किए जाने की आशंका है।"
जिनेश्वरसूरि ने अपने गुरु से निवेदन किया :- "प्राचार्यदेव ! यूकाओं (जूनों) के भय से वस्त्र का परित्याग तो नहीं किया जा सकता। मुझे और बुद्धि सागर को गुजरात में धर्म प्रचार की आज्ञा प्रदान कीजिये । हम दोनों वहां सभी प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों का साहस के साथ सामना करते हुए प्रभु महावीर के विश्वकल्याणकारी जैन धर्म का प्रचार-प्रसार करेंगे।"
अपने शिष्यों के साहस एवं क्षमता से सन्तुष्ट एवं आश्वस्त हो वर्द्धमानसूरि ने उन्हें गुजरात में धर्म प्रचार की अनुज्ञा प्रदान करते हुए उन दोनों मुनियों को प्राचार्य पद और साध्वी कल्याणवती को महत्तरा पद प्रदान किया। गुरुग्राज्ञा प्राप्त कर जिनेश्वरसूरि और प्राचार्य बुद्धि सागर ने गुजरात की अोर विहार किया। वे दोनों बन्धु अहिल्लपुर पट्टण में पहुंचे और राजपुरोहित के घर में ठहरे । राजपुरोहित द्वारा उनसे उनके नाम, वंश, स्थान आदि के सम्बन्ध में प्रश्न
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