________________
जिनचन्द्रसूरि
जिनेश्वरसूरि के पश्चात् जिनचन्द्रसूरि संविग्न परम्परा के प्राचार्य हुए । इन्हें और अभयदेवसूरि को जिनेश्वरसूरि ने अपने गुरु वर्द्धमानसूरि के जीवन काल में उनके आदेश से ही आचार्य पद प्रदान कर दिया था ।
खरतरगच्छ की अनेक पट्टावलियों में संविग्न परम्परा के प्राचार्यों, श्रमण, श्रमणियों तथा श्रावक-श्राविकाओं को खरतरगच्छ की परम्परा का बताया गया है । इस सम्बन्ध में उन पट्टावलियों में लिखा गया है कि प्रणहिलपुर पाटण के महाराजा दुर्लभराज सोलंकी की राजसभा में ८४ गच्छों के चैत्यवासी साधुओं को जिनेश्वरसूरि ने शास्त्रार्थ में पराजित किया । उस उपलक्ष में दुर्लभराज ने जिनेश्वरसूरि को खरतर विरुद से विभूषित किया । पट्टावलीकारों के इस कथन की स्व० पं. श्री कल्याण विजयजी महाराज जैसे लब्धप्रतिष्ठ इतिहासकारों ने प्रामारिकता की कोटि में गणना नहीं की है ।
वास्तविकता यह है कि "खरतरगच्छ वृहद्गुर्वावली" में पाटण के महाराजा दुर्लभराज की सभा में वर्द्धमानसूरि की विद्यमानता में उनके शिष्य जिनेश्वरसूरि द्वारा चैत्यवासियों को शास्त्रार्थ में पराजित किये जाने का तो उल्लेख है किन्तु "खरतर विरुद" दिये जाने का किंचित् मात्र भी उल्लेख नहीं है । अभयदेवसूरि ने भी अपनी ज्ञाता धर्मकथांग वृत्ति में अपनी परम्परा को चन्द्र कुलीन संविग्न परम्परा बताया है । '
इसी प्रकार जिनदत्तसूरि (वि० सं० १२०४ - १२११) ने भी अपनी कृति गणधर सार्द्धशतक" में चैत्यवासियों को पराजित किये जाने का तो उल्लेख किया है, किन्तु खरतर विरुद दिये जाने का कहीं उल्लेख नहीं किया है ।
श्री जिनचन्द्रसूरि ने १८ हजार श्लोक प्रमाण 'संवेग - रंगशाला" नामक एक ग्रन्थ की रचना की जो प्रत्येक मुमुक्षु के लिये पठनीय, मननीय एवं अध्यात्म के प्रशस्त पथ पर अग्रसर होने के इच्छुक साधकों के लिए प्रकाशस्तम्भ तुल्य है । जिनचन्द्रसूरि की कृति का "संवेग रंगशाला" नाम से भी यही निष्कर्ष निकलता है कि वर्द्धमानसूरि द्वारा क्रियोद्धार के पश्चात् प्रारम्भ की गई परम्परा उनके समय. तक संविग्न परम्परा के नाम से ही अभिहित की जाती थी
।
ज्ञाता धर्म कथांग वृत्ति, प्रशस्ति, श्लोक सं. ८
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org