________________
१४८ 1
इनके जन्म और प्राचार्यपद पर आसीन होने के सम्बन्ध में प्रभावक चरित्रकार ने प्रकाश डालते हुए उल्लेख किया है कि महीधर श्रेष्ठि और धनदेवी के पुत्र अभयकुमार ने बाल्यावस्था में एवं वर्द्धमानसूरि की विद्यमानता में ही श्रमधर्म की दीक्षा ग्रहण कर ली थी । श्रमरणधर्म की दीक्षा प्रदान किये जाने पर गुरु द्वारा अभयकुमार का नाम अभयदेव रखा गया । इनकी दीक्षा के सम्बन्ध में प्रभाचन्द्रसूरि ने लिखा है कि एक समय जिनेश्वरसूरि विहार क्रम से धारानगरी में पधारे । उनके उपदेश को सुनने के लिये विशाल जनसमूह उमड़ पड़ा । अतुल धन सम्पदा के स्वामी महीधर नामक श्रेष्ठि अपनी पत्नी धनदेवी और अपने बालक अभयकुमार के साथ प्राचार्य श्री के धर्मोपदेश को सुनने के लिये आया । उनके उपदेश को सुनकर बालक अभयकुमार को संसार की प्रसारता एवं क्षणभंगुरता का पहली बार भलीभांति बोध हुआ और वह वैराग्य के गहरे रंग में रंग गया । अभयकुमार ने तत्काल माता-पिता से प्रार्थना की कि उसे वे जिनेश्वरसूरि के चरणों की शीतल छाया में श्रमण-धर्म की दीक्षा ग्रहण करने की अनुज्ञा प्रदान करें। अपने प्राणप्रिय पुत्र की इस प्रकार की बात सुनकर महीधर और धनदेवी स्तब्ध हो शोक सागर में निमग्न हो गये । उन्होंने श्रमरगजीवन की कठिनाइयों से अपने पुत्र को अवगत कराते हुए उसे समझाने का यथाशक्य पूरा-पूरा प्रयास किया कि अभी उसकी बालवय है अतः अर्थकरी विद्या के अर्जन में ही निरत रहे और युवावस्था में नाना प्रकार के सांसारिक भोगोपभोगों का सुखोपभोग करने के अनन्तर ढलती वय में श्रमण-धर्म में दीक्षित हो जाय । होनहार बालक अभय कुमार को पूर्वजन्मों के संस्कारों के प्रताप से अनमोल मानव जीवन के महत्व और सांसारिक जीवन के ऐहिक भोगोपभोगों की क्षणभंगुरता का आभास हो गया था अतः उसने दीक्षित हो जाने का अपना दृढ़ संकल्प प्रकट करते हुए कहा कि उसे क्षणभंगुर संसार के निस्सार कार्यकलापों एवं सुखोपभोगों में कोई सार प्रतीत नहीं होता । अब उसे संसार का कोई प्रलोभन अपनी ओर आकर्षित नहीं कर सकता । उसने मन ही मन सब भांति सोच विचार कर श्रमरण धर्म में दीक्षित हो जाने का अटल निश्चय कर लिया है ।
[
जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
अपने पुत्र के स्वभाव से महीधर और धन देवी, दोनों ही, भली-भांति परिचित थे कि अभय कुमार ने एक बार जो निश्चय कर लिया है, उससे उसे कोई डिगा नहीं सकता । अतः उन्होंने अन्ततोगत्वा अश्रुपूरित नयनों से अपने प्राणप्रिय पुत्र की ओर निहारते हुए संधे स्वर में उसे दीक्षित होने की अनुज्ञा प्रदान कर दी ।
Jain Education International
माता-पिता की अनुज्ञा प्राप्त होते ही अभयकुमार के हर्ष का पारावार नहीं रहा । दीक्षित होने के पश्चात् मुनि प्रभयदेव ने गुरु चरणों की सेवा में रहते हुए बड़ी निष्ठा के साथ संस्कृत प्राकृत आदि भाषाओं का अध्ययन प्रारम्भ कर दिया । कुशाग्र बुद्धि के धनी मुनि अभयदेव ने अथक् प्रयास करते हुए सभी भाषाओं का आधिकारिक ज्ञान प्राप्त कर विद्वद् समाज को आश्चर्याभिभूत कर दिया । उन्होंने
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org