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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
अभयदेवसूरि भी वहां जाते थे । द्रोणाचार्य सदा अभयदेवसूरि को अपने पास में ही एक ग्रासन पर बिठाते थे। सूत्रों की व्याख्या करते समय जिस किसी स्थल पर उन्हें ग्रर्थ विषयक सन्देह उत्पन्न हो जाता वहां वे ऐसे मन्द स्वर से बोलते कि जिससे दूसरों को कुछ भी सुनाई न दे । द्रोणाचार्य को दूसरे दिन जिन-जिन सूत्रों की व्याख्या करनी थी, अभयदेवसूरि दूसरे दिन उन पर स्वयं द्वारा रचित वृत्ति लेकर व्याख्यान स्थल पर पहुंचे और उन्होंने द्रोणाचार्य से निवेदन किया कि इस वृत्ति को देखकर, इस पर मनन करके आप ग्राज के सूत्रों की व्याख्या कीजिये । उस वृति के कुछ अंशों को पढ़ते ही सभी चैत्यवासी ग्राचार्य चमत्कृत हो गये, द्रोणाचार्य के आश्चर्य का तो पारावार ही नहीं रहा । उस वृत्ति को पढ़ते हुए द्रोणाचार्य विचार करने लगे :- "क्या इस वृत्ति का निर्माण साक्षात् गणधरों ने किया है अथवा यह इन अभयदेवसूरि द्वारा ही रचित है । द्रोणाचार्य के मानस में अभयदेव के प्रति प्रगाढ़ ग्रादर भाव जागृत हुया । दूसरे दिन भयदेवसूरि को व्याख्यान स्थल पर प्राते देखकर उनकी अगवानी के लिये द्रोणाचार्य अपने ग्रासन से उठ खड़े हो गये । सुविहित परम्परा के एक प्राचार्य के प्रति अपनी चैत्यवासी परम्परा के सबसे बड़े प्राचार्य, द्रोणाचार्य का इस प्रकार का ग्रादर-भाव देखकर वे सभी चैत्यवासी प्राचार्य रुष्ट हो, उठ खड़े हुए और अपनी-अपनी वसति की ओर लौट गये । अपने-अपने मठ में जाकर उन्होंने द्रोणाचार्य से कहलवाया "इसमें ( भयदेवसूरि में ) हमसे अधिक ऐसी क्या विशेषता है, ऐसा क्या गुण है कि जिसके कारण हमारे प्रमुख प्राचार्य उनके प्रति इस प्रकार का आदर-भाव प्रकट करते हैं ? अन्य परम्परा के प्राचार्य के प्रति इस प्रकार का ग्रादरभाव प्रकट किया जायगा तो हमारी क्या स्थिति होगी ?" रुष्ट चैत्यवासी आचार्यों की इस प्रकार की पारस्परिक मन्त्ररणा से अवगत होते ही गुणग्राही विद्वान् द्रोणाचार्य ने एक श्लोक की रचना की और उसकी अनेक प्रतियां लिखवाकर सभी चैत्यवासी प्राचार्यों के पास अनेक मठों में भिजवा दीं । वह श्लोक इस प्रकार है :
आचार्याः प्रतिसद्म सन्ति महिमा येषामपि प्राकृतैर्मातुं नाऽध्यवसीयते सुचरितैस्तेषां पवित्रं जगत् । एकेनाऽपि गुणेन किन्तु जगति प्रज्ञाधनाः साम्प्रतं, यो धत्तेऽभयदेवसूरिसमतां सोऽस्माकमावेद्यताम् ॥
अर्थात् यों तो सभी मठ, उपाश्रयों, आदि धर्मस्थानों में बहुत से ऐसे आचार्य हैं, जिनके निर्मल चरित्र से यह जगती - तल पवित्र बन गया है, जिनकी महिमा का कोई साधारण व्यक्ति भी अनुमान नहीं लगा सकता, किन्तु क्या ग्रांज के युग में कोई एक भी ऐसा विद्वान् प्राचार्य है, जो किसी एक गुरण में भी
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