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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
वस्तुतः शत-प्रतिशत वस्तुस्थिति उस प्रकार की नहीं थी। यह तथ्य द्रोणाचार्य के जीवनवृत्त से प्रकाश में आता है। .. यह पहले बताया जा चुका है कि जिस प्रकार लुप्त चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्यों का इतिवृत्त आज जैन वाङ्मय में उपलब्ध नहीं, ठीक उसी प्रकार द्रोणाचार्य का जीवनवृत्त भी उपलब्ध नहीं है। उनके जीवन से सम्बन्धित जो दो चार स्फुट तथ्य खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली और अभयदेवसूरि द्वारा रचित तीन अंगवृत्तियों की प्रशस्तियों में उपलब्ध होते हैं, उनसे न केवल द्रोणाचार्य की संघ-संचालन कुशलता, प्रकाण्ड पाण्डित्य और आगममर्मज्ञता का ही पता चलता है, अपितु चैत्यवासी परम्परा के सुविशाल संघ की ठोस व्यवस्था-प्रणाली का भी पता चलता है।
जिस समय अभयदेवसूरि के गुरु जिनेश्वर सूरि का पाटणाधीश महाराजा दुर्लभसेन (दुर्लभराज) की विद्यमानता में चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्यों के साथ शास्त्रार्थ हुआ, उस समय चैत्यवासी परम्परा का संघ अतीव सुदृढ़, विशाल एवं बड़ा ही शक्तिशाली था । यह तथ्य खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली के निम्नलिखित उल्लेख से प्रकाश में आता है :
"ततश्चिन्तिते दिने तस्मिन्नेव देवगृहे सूराचार्य प्रभृति चतुरशीतिराचार्या: स्वविभूत्यनुसारेणोपविष्टाः । ........ तेऽप्याचार्याः पूजितास्ताम्बूल-दानेन राज्ञा ।'' इस उल्लेख से निर्विवाद रूपेण यह सिद्ध होता है कि विक्रम सं. १०८० तक चैत्यवासी परम्परा का संघ अति विशाल और बड़ा ही शक्तिशाली था। उसमें प्रायः चौरासी गच्छ और चौरासी प्राचार्य थे । उन चौरासी गच्छों के चौरासी प्राचार्यों में सूराचार्य सर्वोपरि प्रमुख अथवा प्रधान आचार्य माने जाते थे। चौरासी गच्छों में से प्रत्येक गच्छ की व्यवस्था का संचालन उस गच्छ का प्राचार्य करता था और उन चौरासी आचार्यों में से जिसे संघ द्वारा प्रधानाचार्य पद पर अधिष्ठित कर दिया जाता था, उसकी आज्ञा को सभी शेष आचार्य शिरोधार्य कर सम्पूर्ण संघ के हित के कार्यों को सम्पन्न करने में निरत रहते थे। जिनशासन के प्रचार-प्रसार के लिये प्रत्येक गच्छ की गतिविधियों को समीचीन रूप से संचालित करते रहने का उत्तरदायित्व ८४ गच्छों के प्रत्येक गच्छ के प्राचार्य पर और सब संघों को एकसूत्र में बांधे रखकर सभी गच्छों के लिये एक ही प्रकार की नीति निर्धारित कर सभी आचार्यों से उस विशिष्ट नीति का सभी गच्छों द्वारा परिपालन करवाने के लिये सभी प्राचार्यों को निर्देश देने का कार्य प्रधान आचार्य के अधीन था। किसी भी गच्छ की कार्यप्रणाली में गुणदोष देखने तथा उसके दोषनिवारण अथवा गुण अभिवर्द्धन हेतु सम्बन्धित प्राचार्य को समुचित निर्देश देने का कार्य प्रधानाचार्य के
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खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली, पृष्ठ ३
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