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वीर निर्वारण की सोलहवीं सत्रहवीं, तदनुसार विक्रम की ११वीं १२वीं और ईसा की ग्यारहवीं शताब्दी के जैनाचार्यों में चैत्यवासी परम्परा के युगप्रधान तुल्य प्राचार्य श्री द्रोणाचार्य का जीवनवृत्त वस्तुतः तत्कालीन जैन इतिहास की दृष्टि से बड़ा ही महत्त्वपूर्ण है । जैन वाङ्मय में इन्हें द्रोणसूरि एवं आचार्य द्रोण की संज्ञा से भी अभिहित किया गया है । आचार्य द्रोण नवाङ्गी वृत्तिकार श्राचार्य अभयदेवसूरि के समकालीन और अभयदेवसूरि से संभवतः वयोवृद्ध थे । तथापि प्राचार्य द्रोण सदा अभयदेवसूरि को इस प्रकार अत्यधिक सम्मान देते थे, जिस प्रकार कि अपने से बड़ों को दिया जाता है । इससे उनके वैयक्तिक जीवन की एक बहुत बड़ी विशेषता प्रकट होती है कि वे बड़े ही गुरगज्ञ एवं गुरणों की पूजा करने वाले थे ।
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द्रोणाचार्य (चैत्यवासी परम्परा )
चैत्यवासी परम्परा का अस्तित्व, विक्रम की १७वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में ही धरा से तिरोहित हो चुका था । इसी कारण आज न तो चैत्यवासी परम्परा से सम्बन्धित कोई खास साहित्य ही उपलब्ध है और न उस परम्परा की क्रमबद्ध पट्टपरम्परा अथवा उस परम्परा के प्रतापी प्राचार्यों का प्रामाणिक जीवनवृत्त ही ।
इसमें तो किसी का मतभेद नहीं कि चैत्यवासी परम्परा ने आदर्श त्यागतप-संयमपूर्ण निष्परिग्रही, (निरासक्त- निस्संग) श्रमरण जीवन में शिथिलाचार के बीजारोपण के साथ २ मूलतः नितान्त अध्यात्मपरक निर्ग्रन्थ जैन धर्म के स्वरूप में अनेक प्रकार की विकृतियों, विधि विधानों एवं अनागमिक मान्यताओं को प्रविष्ट करा कर तीर्थ प्रवर्तनकाल से वीर निर्वारण सं. १००० तक प्रबाध रूप से चली आ रही जैन धर्म की भाव परम्परा को बाह्याडम्बर बहुल द्रव्य परम्परा के रूप में परिवर्तित कर दिया । इतना सब कुछ होते हुए भी विक्रम की १२वीं शती के कतिपय विद्वानों ने केवल खण्डनात्मक नीति को प्रश्रय दे समष्टि रूप से सम्पूर्ण चैत्यवासी परम्परा का अपनी कृतियों में जिस प्रकार का चित्र प्रस्तुत किया है,
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वि० सं० १६६० में कड़वा मत के पट्टधर शाह श्री रत्नपाल सघ के साथ सिरोही प्राये । "वहाँ चत्यवासी के साथ चर्चा शाह श्री रत्नपाल तथा संघ के प्रदेश से शाह जिनदास ने की ।"
कडवा मत पट्टावली, ६ तेजपाल के पट्टधर शाह श्री रत्नपाल का चरित्र - इससे सिद्ध होता है कि चैत्यवासी परम्परा का अस्तित्व, वि० सं० १६६० तक रहा ।
-सम्पादक
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