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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
शिलालेखों एवं ताम्रपत्रों के आधार पर वि. सं. ११२६ से ११५१ तक निश्चित किया गया है । पांचवें अंग व्याख्या प्रज्ञप्ति (भगवती सूत्र) की वृत्ति की रचना अभयदेवसूरि ने की, इस वृत्ति के अन्त में दी गई प्रशस्ति के अनुसार उन्होंने विक्रम सं. ११२८ में इसे सम्पन्न की। इसके पश्चात् कतिपय अंगों की वृत्तियों का निर्माण करने के अनन्तर स्वरचित अति विशाल अथवा विपुल साहित्य में से बहुत से साहित्य का निर्माण किया होगा और इतने सुविशाल साहित्य की रचना करने में उन्हें दस अथवा ग्यारह वर्ष तो अवश्यमेव लगे होंगे।
___इस सम्बन्ध में विचार के पश्चात् अभयदेव सूरि का स्वर्गारोहण काल वि. सं. ११३५ की बजाय वि. सं. ११३६ ही अनुमानित करना संगत प्रतीत होता है ।
विक्रम की ११वीं-१२वीं शताब्दी के प्रागम मर्मज्ञ, वृत्तिकार, विपुल साहित्य के स्रष्टा आचार्य अभयदेव जैन जगत् में नवाङ्गी वृत्तिकार के रूप में विख्यात हैं। आगमों के गहन-गूढार्थ का सुगम सरल शैली में बोध करा देने वाली आपकी नवाङ्गी वृत्तियां विगत ६ शताब्दियों से आगमों के अध्येताओं को मार्ग-दर्शन करती आ रहीं हैं और भविष्य में भी सहस्राब्दियों तक मुक्ति पथ के पथिकों को दुरूह मुक्तिपथ के परम-प्रमुख पाथेय प्रागमिक ज्ञान के अर्जन में सहायता प्रदान करती रहेंगीं। इसी कारण प्राचार्य अभयदेवसूरि का प्रातः स्मरणीय पवित्र नाम जैन जगत् के इतिहास में सदा-सदा स्वर्णाक्षरों में लिखा जाता रहेगा।
यदि अभयदेवसूरि के, अथ से इति तक के जीवन वृत्त की गहराइयों में पैठने का प्रयास किया जाय तो सत्यान्वेषी शोधार्थियों को शोध के लिए नितान्त नूतन सामग्री उपलब्ध हो सकती है। इस बात में तो किसी का कोई मतभेद नहीं कि अभयदेवसूरि आगमों के तलस्पर्शी मर्मज्ञ विद्वान् थे। विश्व के प्राणिमात्र के हितेच्छु-सुखेप्सु-अनन्य बन्धु-सच्चे सखा-सही अर्थ में सच्चे माता-पिता त्रिकालदर्शीवीतराग-सर्वज्ञ-सर्वहितंकर तीर्थंकर प्रभु-महावीर ने आगमों में बाह्याडम्बर-विहीन एवं नितान्त अध्यात्मपरक प्रात्मधर्म-विश्वधर्म-जैन धर्म का, साधु धर्म का, श्राद्ध धर्म का, किस प्रकार का स्वरूप संसार के समक्ष रखा है, इस तथ्य से आगममर्मज्ञ अभयदेवसूरि भली-भांति अवगत थे। उनसे यह भी छुपा नहीं रहा कि आगमों में प्रतिपादित श्रमणाचार एवं श्रावकाचार से उनके युग के श्रमणाचार एवं श्रावकाचार में वस्तुतः कैसा आकाश-पाताल तुल्य अन्तर पा चुका है। आगम-प्रतिपादित अध्यात्मपरक जैन धर्म के विशुद्ध मूल स्वरूप में पंचांगी के नाम पर तीर्थ प्रर्वतनकाल से ११-१२ ही नहीं १३ शताब्दियों के पश्चात् पूर्वज्ञानविहीन प्राचार्यों द्वारा निर्मित भाष्य आदि आगमेतर ग्रन्थों का पुट लगा कर उसकी तीर्थ-प्रवतनकाल से चली आ रही मूल विशुद्ध भाव परम्परा को देवद्धिगरिण क्षमाश्रमण के स्वर्गारोहण के अनन्तर द्रव्य परम्परा के रूप में परिवर्तित कर दिया गया है, इस तथ्य से भी प्राचार्य अभयदेवसूरि सुनिश्चित रूपेण भली-भांति अवगत थे। इस
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