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'-भाग ४
[ जैन धर्म का मौलिक इतिहासधारण करवाया जाय । प्रतिष्ठा कराने वाले आचार्यप्रवर प्रतिष्ठाचार्य को इस प्रकार नितरां अतीव सुन्दर वस्त्र पहनाने और स्वर्णाभूषणों से विभूषित करने के पश्चात् प्रतिष्ठा कराने हेतु प्रतिष्ठाचार्य की प्रासन पर विराजित किया जाय"इस प्रकार के श्रागम विरोधी एवं श्रमण जीवन का सर्वनाश करने वाले 'प्रतिष्ठा पद्धति' विधान, जो चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्यों, पादलिप्तसूरि आदि ने चैत्यवासी परम्परा के वर्चस्वकाल में जैन संघ में प्रचलित किये थे, वे एकमात्र आगमों को ही सर्वोपरि तथा परम प्रामाणिक मानने एवं अपने आप में परिपूर्ण कही जाने वाली सर्वांगपूर्ण धर्मक्रांति का सूत्रपात करने वाले महान् क्रियोद्धारक प्राचार्य वर्द्धमानसूरि की परम्परा में तथा अपने आपकी सुविहित परम्परा के नाम से पहिचान करवाने वाली अन्यान्य सुविहित परम्पराओं में कब और कैसे प्रविष्ट हो गये ? जिन सुविहित कही जाने वाली परम्पराओं ने शिथिलाचार, बाह्याडम्बर एवं प्रागम विरोधी मान्यताओं की जननी चैत्यवासी परम्परा के चंगुल से भगवान् महावीर के धर्म संघ को छुड़ाने के लिए दीर्घकाल तक प्रथक् प्रयास किये, उन्हीं सुविहित परम्पराम्रों ने अन्ततोगत्वा चैत्यवासी परम्परा के चरण- चिह्नों का अनुसरण कर उस द्रव्यपरम्परा - चैत्यवासी परम्परा द्वारा प्रचलित बाह्याडम्बरपूर्ण नागमिक विधि-विधानों, शास्त्र विरुद्ध मान्यताओं को अपना कर कब, कैसे और क्यों आत्मसात् कर लिया ?
प्रत्येक विज्ञ जिनशासन प्रेमी के हृदय को यदा-कदा ही नहीं अपितु सदासर्वदा प्रतिपल कचोटते रहने वाले इन प्रश्नों का सन्तोषप्रद समाधान अभयदेवसूरि के समय की परिस्थितियों के पर्यालोचन के साथ-साथ अभयदेवसूरि के जीवनवृत्त की कतिपय घटनाओं के अन्तः निरीक्षण से सम्भव है कि नहीं, इस दिशा में विद्वानों Satara र विवेकपूर्ण वृत्ति से प्रयास करने की आवश्यकता है ।
जैन वाङ्मय में उपलब्ध अनेकानेक उल्लेखों से परिपुष्ट यह तो एक ऐतिहासिक तथ्य है कि वर्द्धमानसूरि द्वारा किये गये क्रियोद्धार एवं धर्म क्रान्ति के सूत्रपात के परिणामस्वरूप शताब्दियों से सशक्त एवं सुदृढ़ होती चली आ रही चैत्यवासी परम्परा की आधारशिला अथवा आधार भित्ति विक्रम की ११वीं शताब्दी के अन्तिम चरण में सहसा हिल उठी । अनहिलपत्तनाघीश दुर्लभराज की राज्यसभा में वि० सं० १०७६ - ८० में चैत्यवासी परम्परा के कर्णधारों के साथ प्रायोजित शास्त्रार्थ में "जैन कहलाने वाले प्रत्येक जैन धर्मावलम्बी के लिये एकमात्र आगम शास्त्र ही सर्वोपरि, सर्वमान्य एवं परम प्रामाणिक हैं" - इस सिंहनाद के साथ जिनेश्वरसूरि ने चैत्यवासियों को परास्त कर शिथिलाचार एवं अनागमिक प्रचारविचार की धात्री चैत्यवासी परम्परा को एक प्रकार से झकझोर ही डाला । श्रमण भगवान् महावीर द्वारा उद्घाटित अथवा प्रदर्शित मुक्ति के मूल पथ से चैत्यवासियों द्वारा भटका दिये गये भव्य नर-नारी वृन्द विश्व कल्याणकारी जैन धर्म के विशुद्ध स्वरूप से अवगत ग्राश्वस्त हो पुनः मुक्ति के मूल सत्पथ पर आरूढ़ होने लगे ।
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