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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ ६. अन्तकृद्दशांग वृत्ति- एकादशांगी के आठवें अंग अन्तकृतदशा पर
आपने ८६६ श्लोक परिमारण वृत्ति का निर्माण किया। वृत्ति के निर्माण काल व स्थान का इसमें उल्लेख नहीं है। अनुत्तरोपपातिकदशांग वृत्ति-एकादशांगी के नवमें अंग अनुत्तरौपपातिक दशा वृत्ति की रचना की। इस वृत्ति में भी रचनाकाल. एवं रचनास्थल का उल्लेख नहीं किया गया है। प्रश्नव्याकरण वत्ति-एकादशांगी के दसवें अंग शास्त्र प्रश्नव्याकरण की १६३० श्लोक प्रमाण वृत्ति की रचना की। रचनाकाल एवं स्थल का उल्लेख इसमें भी नहीं मिलता। विपाक वृत्ति-एकादशांगी के ग्यारहवें अंग विपाक सूत्र पर आपने ३१२५ श्लोक प्रमाण वृत्ति की अरणहिल्लपुर पट्टण नगर में रचना सम्पन्न की । इस वृत्ति को भी आचार्य द्रोणाचार्य ने संशोधित किया। इस वृत्ति के अन्त में इसके रचनाकाल और रचना सम्वत् का उल्लेख नहीं किया गया है।
यह पहले ही स्पष्ट कर दिया गया है कि एकादशांगी के प्रथम अंग प्राचारांग एवं द्वितीय अंग सुत्रकृतांग पर प्राचार्य शीलांक द्वारा रचित टीकाएं उपलब्ध हैं, इसी कारण अभयदेवसूरि ने इन दोनों
सूत्रों पर वृत्तियों का निर्माण नहीं किया। ६ अंगों पर उपरिवरिणत : वृत्तियों की रचना के अतिरिक्त अभयदेवसूरि ने औपपातिक नामक उपांग पर भी ३१२५ श्लोक परिमाण वृत्ति की रचना की।
उपरिवरिणत ६ अंगों और १ उपांग पर कुल १० वृत्तियों की रचना के अतिरिक्त आचार्य अभयदेवसरि ने प्रज्ञापना तृतीय पद-संग्रहणी, पंचाशक वत्ति, जयतिहुयण स्तोत्र, पंचनिन्थी और षष्ठ कर्मग्रन्थ-सप्ततिकाभाष्य की भी रचना की।
आ० अभयदेवसूरि द्वारा ६ अंगों पर रचित ये वृत्तियां इन (नवों ही) अंगों के गूढार्थपूर्ण सूत्रों और शब्दों पर स्पष्ट प्रकाश डालने वाली हैं। न तो ये अति संक्षिप्त हैं और न ही अति विस्तारपूर्ण । सूत्रार्थ स्पशिनी एवं शब्दार्थ विवेचन प्रधान शैली को अपना कर भी अभयदेवसूरि ने इन वृत्तियों में जहां-जहां उन्हें आवश्यकता प्रतीत हुई, शब्दों और सूत्र के अर्थ का सुबोध शैली में ऐसा सुन्दर ढंग से विवेचन किया है कि आगमों के अध्ययन में रुचि रखने वाला जिज्ञासु सूत्रों एवं शब्दों के गहन-गूढ़ रहस्य को भली-भांति हृदयंगम करने में सक्षम हो सकता है। अपनी विवेचनशैली को सूत्र तथा शब्दों के अर्थ तक ही सीमित न रख कर
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