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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४
"इस प्रकार की विशीर्ण शारीरिक स्थिति में वृत्तियों की रचना कैसे कर सकूगा?"
__ इस पर देवी ने उपदेश की मुद्रा में कहा-'स्तम्भनकपुर नामक नगर के समीप सेढिका नामक नदी के तट के सन्निकट खंखरा पलाश नामक वृक्षों के बीच में पार्श्वनाथ भगवान् की प्राकृतिक (स्वयंभू) प्रतिमा विद्यमान है। उस प्रतिमा के समक्ष देवों का वन्दन करो । तुम पूर्ण स्वस्थ हो जाओगे।"
यह कहकर देवी तिरोहित हो गई ।
प्रातःकाल चारों ओर के पड़ोस-पड़ोस के गांवों से आये हुए श्रावकों का समूह अभयदेवसूरि के समक्ष उपस्थित हुआ । सबने सादर सूरिजी को वन्दन-नमन किया।
अभयदेवसूरि ने उनसे कहा-“स्तम्भनकपुर में पार्श्वनाथ भगवान् को वन्दन करने जाना है।"
श्रावकों ने इसे अपने पूज्य आचार्य का उपदेश समझा और वे बोले-"हम इसका प्रबन्ध करके अभी आपकी सेवा में उपस्थित होते हैं।"
उन्होंने अभयदेवसूरि के लिये वाहन की व्यवस्था की और स्तम्भनकपुर की ओर प्रस्थित हुए । अभयदेव सूरि की भूख वस्तुतः उस समय तक पूर्णतः नष्ट हो चुकी थी। किन्तु कुछ ही दूरी की यात्रा के पश्चात् उन्हें भूख लग गई और उनकी कुछ पेय लेने की इच्छा हुई । यात्रा क्रम से धवलक नामक ग्राम तक पहुंचते पहुंचते अभयदेवसूरि का शरीर निरोग हो गया । स्वस्थ हो जाने पर उन्होंने स्तम्भनकपुर तक चरण विहार किया। वहां पहुंचते ही श्रावकों ने इधर-उधर भगवान् पार्श्वनाथ की प्रतिमा को ढूढ़ना प्रारम्भ किया। किन्तु जब मूर्ति कहीं भी दृष्टिगोचर नहीं हुई तो उन्होंने गुरु से पूछा कि वह मूर्ति कहां है।
अभयदेवसूरि ने उन्हें बताया- "खंखरा पलाश वृक्षों के मध्य भागों में देखो।"
उन वृक्षों के पास ढूंढ़ने पर श्रावकों को दैदीप्यमान वह मूर्ति दृष्टिगोचर हुई । उन्हें लोगों से यह भी विदित हुया कि प्रतिदिन एक गाय यहां आकर इस मूर्ति पर अपने स्तनों से दूध की धाराएं वर्षा कर इस मूर्ति को दूध से स्नान कराती है । श्रावक बड़े सन्तुष्ट हुए और उन्होंने अभयदेवसूरि के समक्ष उपस्थित होकर कहा-"भगवन् ! आपके द्वारा बताई गई मूर्ति को हमने ढूंढ़ लिया है।"
___इस पर अभयदेवसूरि भगवान् को वन्दन करने के लिये भक्ति-विभोर हो उस ओर चल पड़े। उन्होंने उस स्थान पर मूर्ति को देखा और उसकी भक्ति-भाव
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