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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
उद्योतनसूरि
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वस्तुतः एक विचारणीय विषय है। प्रभाचन्द्रसूरि द्वारा वर्द्धमानसूरि के गुरु उद्योतनसूरि के नामोल्लेख तक न किये जाने का एक ही कारण अनुमानित किया जा सकता है कि तपागच्छ पट्टावली में उल्लिखित ३५वें पट्टधर उद्योतनसूरि से कतिपय वर्षों पश्चात् हुए उपेक्षित मूल श्रमण परम्परा के शिष्य संतति विहीन, महान् क्रियानिष्ठ एवं विद्वान् उन उद्योतनसूरि के नाम, उनकी गुरु परम्परा आदि के सम्बन्ध में तत्कालीन जैन संघ में किसी प्रकार का कोई विवाद रहा हो।
प्रत्येक विज्ञ को चौंका देने वाली अद्भुत् आश्चर्यकारी बात तो यह है कि वर्द्धमानसूरि के जीवनकाल में जिनेश्वरसूरि द्वारा दीक्षित और वर्द्धमानसूरि के. आदेश-निर्देश से ही प्राचार्यपद पर अधिष्ठित किये गये नवांगीवृतिकार जैनजगत् के प्रकाशपुंज नक्षत्र अभयदेवसूरि ने भी नवांगीवृत्तियों की प्रशस्तियों में अपने दादागुरु वर्द्धमानसूरि का तो प्रगाढ़ श्रद्धाभक्ति से प्रोत-प्रोत अमेय सम्मानपूर्ण शब्दों में स्मरण किया है किन्तु अपने दादागुरु वर्द्धमानसूरि के गुरु अर्थात् अपने परदादागुरु उद्योतनसूरि का कहीं कोई नामोल्लेख तक नहीं किया है। नवांगीवृतिकार ने अपने पूर्वाचार्यों का स्मरण निम्नलिखित रूप में किया है :
....... तच्चन्द्रकुलीनप्रवचनप्रणीताप्रतिबद्धविहारहारिचरितश्री वर्द्धमानाभिधानमुनिपतिपादोपसे विनः प्रमाणादिव्युत्पादनप्रवणप्रकरणप्रबंधप्रणयिनः प्रबुद्धप्रतिबन्धप्रवक्तप्रवीणाप्रतिहतप्रवचनार्थप्रधानवाक्प्रसरस्य सुविहितमुनि जनमुख्यस्य श्री जिनेश्वराचार्यस्य तदनुजस्य च व्याकरणादि शास्त्रकर्तु: श्रीबुद्धिसागराचार्यस्य चरणचंचरीककल्पेन श्रीमदभयदेवसूरिनाम्ना मया महावीरजिनराजसन्तानवर्तिना महाराजवंशजन्मनेव संविग्नमुनिवर्ग श्रीमदजितसिंहाचार्यान्तेवासि यशोदेवगणि नामधेयसाधोख्तरसाधकस्येव विद्या-क्रिया-प्रधानस्य साहाय्येन समर्थितम् ।"१
औपपातिकवृत्ति के अन्त में भी अभयदेवसूरि ने अपने गुरु और प्रगुरु का स्मरण इसी रूप में किया है । यथा :
चन्द्रकुलविपुलभूतलयुगप्रवरवर्धमानकल्पतरोः । . कुसुमोपमस्य सूरेः गुणसौरभभरितभवनस्य ।। १ ।। निस्संबंधविहारस्य सर्वदा श्री जिनेश्वराहस्य ।। शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणेयं कृता वृत्तिः ।। २॥ अहिलपाटकनगरे श्रीमद्रोणाख्यसूरिमुख्येन ।
पण्डितगुणेन गुणवत्प्रियेण संशोधिता चेयम् ।। ३ ।।
अभयदेव सूरि ने न केवल अपने दादागुरु वर्द्धमानसूरि तथा अपने गुरु जिनेश्वरसूरि और उनके लघुसहोदरलघु गुरुभ्राता बुद्धिसागरसूरि की प्रशंसा में ही १. स्थानांगवृत्ति रचनाकाल वि. सं. ११२० !
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