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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास-भाग ४ मानसूरि के गुरु के रूप में न कहीं उद्योतनसरि अथवा अन्य प्राचार्य का अथवा अपनी परम्परा का नाम खरतरगच्छ होने का ही उल्लेख किया है।
इन सब तथ्यों के परिप्रेक्ष्य में विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि साम्प्रदायिक व्यामोह वशात् जैन संघ में व्याप्त दुर्भाग्यपूर्ण पारस्परिक कटुता के युग में अपने विरोधियों के कटु आक्षेपों से बचने के लिये वर्द्धमानसूरि की परम्परा में पट्टावलीकारों ने उद्योतनसूरि का नाम वर्द्धमानसूरि के रूप में उल्लिखित कर दिया । इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब परस्पर एक दूसरे गच्छ की आलोचनाएं की जाने लगी कि कहां है तुम्हारे गच्छ की अविच्छिन्न परम्परा, कौन था तुम्हारे पूर्वाचार्यों का गुरु ? कोई नहीं, तो बिना गुरु के तुम्हारे पूर्वाचार्य द्वारा प्रचलित की गई परम्पराएं कपोलकल्पित ही समझी जानी चाहिये । उस दुर्भाग्यपूर्ण पारस्परिक वैमनस्य के संक्रान्ति काल में एक प्रकार से यह परिपाटी प्रचलित हो गई कि शिथिलाचारी परम्परा तथा गुरु से पृथक् हो क्रियोद्धार करने वाले साहसी श्रमणोत्तमों ने अपने गुरु के रूप में उन्हीं आचार्यों का नामोल्लेख किया, जिनके पागम विरुद्ध श्रमणाचार से असंतुष्ट हो उनका गच्छ छोड़कर उन्होंने क्रियोद्धार का शंखनाद पूरा था।
अभयदेवसूरि और गुणचन्द्रादि इसी परम्परा के विद्वान् प्राचार्यों द्वारा वर्द्धमानसूरि के गुरु के रूप से उद्योतनसरि अथवा किसी अन्य प्राचार्य का नामोल्लेख नहीं किये जाने से यही तथ्य प्रकाश में आता है कि वर्द्धमानसूरि द्वारा प्रचलित की गई क्रान्तिकारी श्रमण परम्परा के आदि प्राचार्य के रूप में शिष्य संतति विहीन उद्योतनसूरि का नाम गुणचन्द्रगणि के उत्तरवर्ती लेखकों-पट्टावलीकारों ने “खरतरगच्छ” नाम की भांति ही पीछे से जोड़ा है।
एक प्राचीन पत्र' में उद्योतनसरि के उन ८४ शिष्यों की नामावली उल्लिखित है, जिनको उद्योतनसूरि ने आचार्य पद प्रदान किये थे। उन ८४ प्राचार्यों में वर्द्धमानसूरि का नामोल्लेख नहीं है । इतिहास प्रेमियों के चिन्तन मनन हेतु कतिपय महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक तथ्यों पर ऊहापोह योग्य सामग्री से संयुक्त उस प्राचीन पत्र की प्रतिलिपि अविकल रूप से यहां प्रस्तुत की जा रही है :
श्री चोर्यासी गच्छोनी स्थापना श्री महावीर प्रभ पछी ११६३ ना वर्ष मां अने विक्रम सं० ७२३ मां (मतान्तरे १४६४-६६४) श्री उद्योतनसूरिजी ना नीचे मुजब चोर्यासी शिष्यो थया १. अभयदेवसूरि का स्वर्गवास, एक मान्यतानुसार वि. सं. ११३५ और दूसरी मान्यतानुसार
_ वि. सं. ११३६ उपलब्ध होता है । २. मथुरा जाकोर प्रादि से उपलब्ध ऐतिहासिक सामग्री का बड़ा रजिस्टर सं. १ प्राचार्य
श्री विनयचन्द्र ज्ञान भण्डार चौड़ा रास्ता, जयपुर ।
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