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[ जैन धर्म का मौलिक इतिहास - भाग ४
"वर्द्धमानसूरि को चैत्यवासी परम्परा में सिद्धान्त शास्त्रों का अध्ययन करते समय जब यह दृढ़ विश्वास हो गया कि भगवान महावीर द्वारा प्रदर्शित किये गये विशुद्ध श्रमणाचार का चैत्यवासी साधु किंचित्मात्र भी पालन नहीं कर रहे हैं, तो उन्होंने चैत्यवासी परम्परा से निकल कर बिना किसी अन्य प्राचार्य का शिष्यत्व अंगीकार किये ही क्रियोद्धार किया" हमारे इस अनुमान की पुष्टि ऊपर उल्लिखित अभयदेवसूरि आदि द्वारा प्रकट किये गये तथ्यों के अतिरिक्त उनके ( अभयदेव के ) गुरुभ्राता उपाध्याय सुमतिगरिण के शिष्य गुरणचन्द्रगरिण द्वारा अपनी "महावीर चरियं" नामक कृति के निम्नलिखित उल्लेख से भी होती है।
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सगुण रयणनिही, मिच्छत्ततमंधलोय दिरणना हो । दूरुच्छारियवइरो, वइरसामी समुप्पन्नो || ४७। साहाइ तस्स चंदे कुलम्मि, निप्पडिमपसमकुलभवणं । सि सिरी वद्धमाणो, मुणिनाहो संजमनिहिव्व ॥ ४८ ॥ बलकलिकालतमपसरपूरियासेसविसमसमभागो । दीवेणं व मुखीणं पयासि जेरण मुत्तिपहो ॥ ४६ ॥ मुणिवरणो तस्स हर अट्टहाससियजसपसाहियासस्स ।
सि दुवे वर सीसा, जयपयड़ा सूरससिणोव्व ।। ५० ।। भवजल हिवी इसंभंत, भविय संतारणतारणसमत्थो । बोहित्थोव्व महत्थो, सिरि सूरि जिणेसरो पढमो ।। ५१ ।।
गुरुसारा धवलाउ सुविहिया ( निम्मला पु० ) साहुसंतईजाया । हिमवंता गंगव्व निग्गया सयलजगपुज्जा ॥५२॥
अन्न य पुन्निमायंद, सुन्दरो बुद्धिसागरोसूरी । निम्मवियपवरवागरण- छंदसत्थो पसत्थमई ।। ५३ ।। एगंत-वाय विल सिरपरवाइकुरंगभंगसीहाणं । सिं सीसो जिरणचंदसूरिनाम समुप्पन्नो ॥ ५४ ॥ संवेगरंगसाला न केवलं कव्वविरयरणा जेरण । भव्वजण विम्यकरी विहिया संजमपवित्तीवि ॥ ५५ ॥ ससमयपर समयन्नू विसुद्धसिद्धंतदेसरणाकुसलो । सयलम हिवलयवित्तो अन्नोऽभयदेवसूरिति ।। ५६ ।। जेरणालंकारधरा सलक्खरणा, वरपया पसन्ना य । नव्वंग ( सिद्धत पु० ) वितिरयणेण भारई कामिरिणव्व कया || ५७।। सिथिविणे, समत्थसत्थत्थबोहकुसलमई । सूरी पसन्नचंदो, चंदो इव जरणमरणाणंदो ।। ५८ ।।
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