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उद्योतनसूरि
द्रव्य परम्पराओं के उत्कर्ष काल में बाह्याडम्बरों एवं चमत्कारों की चकाचौंध के कारण बहुसंख्यक जैन धर्मावलम्बियों द्वारा उपेक्षित, प्रतिगौण एवं क्षीरणावस्था को प्राप्त विशुद्ध मूल श्रमण परम्परा एवं जैन धर्म के प्रागमिक स्वरूप को जनप्रिय बनाने वाले वर्द्धमानसूरि ने वनवासी उद्योतनसूरि से उसम्पदा-आगमानुसारी विशुद्ध श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण की । वर्द्धमानसूरि ने अपने गुरुवर उद्योतनसूरि की सेवा में रह कर आगमों का गहन अध्ययन किया। उद्योतनसूरि ने श्रागम निष्णात अपने शिष्य वर्द्धमानसूरि को सुयोग्य सुपात्र समझ कर सूरिमंत्र भी दिया ।
उद्योतनसूर से आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त करने के परिणामस्वरूप ही वर्द्धमान सूरि ने विश्वकल्याणकारी जैन धर्म के सच्चे स्वरूप एवं विशुद्ध श्रमरणधर्म को पहिचाना | धर्म और श्रमणाचार के विशुद्ध स्वरूप को भली-भांति पहिचान लेने के पश्चात् वर्द्धमानसूरि ने द्रव्य परम्पराओं की चकाचौंध में जन-जन को उनके द्वारा उपेक्षित धर्म के स्वरूप को समझाने का एक क्रान्तिकारी अभियान प्रारम्भ किया । उस गुरुतर महान् अभियान की पहली और सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण सफलता वर्द्धमान सूरि के जीवनकाल में ही उपलब्ध हो गई थी, यह तथ्य वर्द्धमान सूरि द्वारा पाटणपति चालुक्यनरेश दुर्लभराज की राज्यसभा में कहे गये - "एष पण्डित जिनेश्वर उत्तर- प्रत्युत्तरं यद्भरिष्यति तदस्माकं सम्मतमेव " " इस वाक्य से प्रकाश में आता है कि वर्द्धमानसूरि के शिष्य जिनेश्वरसूरि ने दुर्लभराज की सभा में“महाराज ! अस्माकं मतेऽपि यद्गणधरैश्चतुर्दशपूर्वधरैश्च यो दर्शितो मार्गः स एव प्रमाणीक युज्यते, नान्यः " २ - यह कह कर राजसभा के समक्ष इस शाश्वत सत्य को रखा कि जैन धर्म का विशुद्ध स्वरूप वही है, जो गणधरों अथवा चतुर्दश पूर्वधरों द्वारा आगम शास्त्रों में प्रदर्शित किया गया है ।
यह पहले बताया जा चुका है और प्रबुद्ध पाठक भी अनुभव करते होंगे कि यदि प्रागमिक विशुद्ध मूल धर्म और श्रमणाचार की पुनर्प्रतिष्ठा के लिये वर्द्धमानसूरि द्वारा चैत्यवासी परम्परा के वर्चस्व को समाप्त करने का अभियान प्रारम्भ नहीं किया जाता तो आगमों में प्रतिपादित जैन धर्म तथा श्रमरगाचार का स्वरूप उत्तरोत्तर उपेक्षित, गौरण से गौणतर और गौरणतम होता जाता और आज के युग
१.
२.
खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावलि, सिंधी जैन शास्त्र विद्यापीठ, भारतीय विद्याभवन बम्बई, पृष्ठ-३
वही
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