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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ]
उद्योतनसूरि
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तपागच्छ की अब तक उपलब्ध अन्य सभी पट्टावलियों में भी लगभग इसी बात का उल्लेख है कि वीर निर्वाण वर्ष ९६४ में उद्योतनसूरि ने सर्वदेव को अथवा सर्वदेव आदि अपने आठ शिष्यों को टेलिग्राम की सीमा में स्थित विशाल वटवृक्ष के नीचे प्राचार्य पद प्रदान किया । १
तपागच्छ की उपरिवर्णित पट्टावलिया म से किसी एक भी पट्टावली . में इन उद्योतनसूरि का, खरतरगच्छ के आदि पुरुष होने के रूप में कहीं कोई उल्लेख नहीं है। केवल इतना ही नहीं अपितु उस समय की सर्वाधिक शक्तिमती चैत्यवासी परम्परा का तृणवत् त्याग कर क्रियोद्धार करने वाले वर्द्धमानसूरि के इन उद्योतन सूरि के पास आने, उनसे उपसम्पदा ग्रहण करने, शिष्यत्व अंगीकार कर आगम शास्त्रों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त करने आदि का कहीं कोई नाम मात्र भी उल्लेख नहीं है । चैत्यवासी परम्परा के वर्चस्व और विशुद्ध श्रमण-परम्परा के घोर संक्रान्तिकाल में एक ऐतिहासिक धर्म क्रान्ति का सूत्रपात करने वाले वर्द्धमानसूरि यदि इन उद्योतनसूरि के पास उपसम्पदा एवं शास्त्रों का ज्ञान ग्रहण करते तो तपागच्छ के पट्टावलीकार उद्योतनसूरि के यशस्वी जीवन में चार चाँद लगा देने वाली इस ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण घटना के उल्लेख के लोभ का संवरण किसी भी दशा में नहीं कर पाते । गुरु की गौरव-गरिमा में आशातीत उल्लेखनीय अभिवद्धि करने वाली इस प्रकार की महत्त्वपूर्ण घटना का तपागच्छीय पट्टावलीकारों ने अपने गुरु उद्योतनसूरि के जीवनवृत्त में कहीं किंचित्मात्र भी उल्लेख नहीं किया है, इससे यही तथ्य प्रकट होता है कि तपागच्छ पट्टावली में बड़गच्छ के संस्थापक उन उद्योतनसूरि से ये वर्द्धमानसूरि के गुरु वनवासी उद्योतनसूरि समान नाम वाले भिन्न प्राचार्य थे।
बड़ (वृहद्) गच्छ की संस्थापना और दुर्लभराज सोलंकी की राजसभा में, वर्द्धमानसूरि की विद्यमानता में चैत्यवासी प्राचार्यों के साथ हुए जिनेश्वरसूरि के शास्त्रार्थ के संबंध में काल की दृष्टि से विचार करने पर यही निष्कर्ष निकलता है कि समान नाम वाले ये दोनों आचार्य एक दूसरे से भिन्न समय में हुए थे।
न केवल तपागच्छ की पट्टावलियों में ही अपितु अन्यान्य गच्छों की पट्टावलियों में भी इस बात पर मतैक्य है कि बड़गच्छ की संस्थापना उद्योतनसूरि द्वारा प्राबूपर्वत की तलहटी में विक्रम सं. ६६४ (वीर नि० सं. १४६४) में हुई ।
___ इसके विपरीत खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली में उद्योतनसरि के संबंध में जो उल्लेख है, उसका सारांश यह है कि चौरासी मठों के नायक चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्य जिनचन्द्र अभोहर प्रदेश में थे। उनके पास वर्द्धमान नामक एक किशोर ने चैत्यवासी परम्परा की साधुदीक्षा ग्रहण की। मुनि वर्द्धमान को विद्याभ्यास कराया
१. पट्टावली समुच्चय, भाग १ पृष्ठ १४५, १५२, और १६८
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