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सामान्य श्रुतधर काल खण्ड २ ] उद्योतनसूरि
[ १०३ में उस स्वरूप के दर्शन भी विरल अथवा दुर्लभ हो जाते। पर वर्द्धमानसूरि ने उस प्रकार की दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति नहीं आने दी।
- धर्मोद्योत का एक क्रान्तिकारी अभियान प्रारम्भ कर वर्द्धमानसूरि ने उस संक्रान्तिकाल में सच्चे धर्म को और अधिक उपेक्षित अथवा क्षीण होने से उबारा । वर्द्धमानसूरि को यह प्रकाश उद्योतनसूरि से प्राप्त हुआ। इस प्रकार की स्थिति में वर्द्धमानसूरि के साथ-साथ उद्योतनसूरि का भी जैन इतिहास में सदा श्रद्धा के साथ स्मरण किया जाता रहेगा।
इस स्थिति में प्रत्येक विचारक के मन में इस प्रकार की जिज्ञासा का उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है कि चैत्यवासी जैसी सशक्त परम्परा के एकछत्र वर्चस्वकाल में आगममर्मज्ञ, धर्म के विशुद्ध मूल स्वरूप एवं श्रमणाचार को अपने जीवन में ढालने वाले ये उद्योतनसूरि कौन थे ? और किस क्षेत्र में वे विचरण करते थे ? किन्तु हमें बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि विक्रम की दशवीं ग्यारहवीं शताब्दी के जैन वाङ्मय के सम्यग्रूपेण आलोडन के उपरान्त भी उद्योतनसूरि का प्रामाणिक एवं पूर्ण जीवन वृत्त अद्यावधि उपलब्ध नहीं हुअा। वर्द्धमानसूरि के गुरु आचार्य उद्योतनसूरि के सम्बन्ध में अब तक उपलब्ध जैन वाङ्मय में जो उल्लेख उपलब्ध होते हैं, वे निम्नलिखित रूप में हैं :
१. खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावलि में उद्योतनसूरि के सम्बन्ध में केवल इतना ही उल्लेख है कि वर्द्धमान सूरि ने अभोहर देशस्थ "चैत्यवासी परम्परा के प्राचार्य अपने गुरु जिनचन्द्र से अनुमति प्राप्त कर कतिपय अपने साथियों के साथ चैत्यवासी परम्परा का परित्याग किया। विभिन्न प्रदेशों में विशुद्ध मूलश्रमण परम्परा के चारित्रनिष्ठ आगम मर्मज्ञ गुरु की खोज हेतु विचरण करते हुए वे दिल्ली (ढिल्ली अथवा दली) प्रदेश में पहुंचे। उन दिनों वहां सूरिवर श्री उद्योतनाचार्य विचरण कर रहे थे। उन उद्योतनसूरि से आगमों के मर्म का भली-भांति बोध पा चैत्यवासी परम्परा में पूर्वदीक्षित वर्द्धमान ने उनसे विशुद्ध श्रमण धर्म की दीक्षा ग्रहण की।' तदनन्तर वर्द्धमानसूरि को यह चिन्ता हुई कि इस सूरिमंत्र का अधिष्ठाता कौन है।"
खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली में इस बात पर कोई स्पष्ट प्रकाश नहीं डाला गया है कि वर्द्धमान सूरि को सूरिमंत्र उद्योतनसूरि से प्राप्त हुआ अथवा स्वतः या अन्य किसी से।
१.
ततो गुरोःसम्मत्या निर्गत्य कतिचिन्मुनिसमेतो दिल्ली वा दली प्रभृति देशेषु समायातः । तस्मिन् प्रस्तावे, तत्रवोद्योतनाचार्य सूरिवर पासीत् । तस्य पार्श्व सम्यगागमतत्वं बुद्धवा, उपसंपदं गृहीतवान् । तदनन्तर श्री वर्धमानसूरेरियं चिन्ताजाता-"प्रस्य सूरिमंत्रस्य को अधिष्ठाता !
खरतरगच्छ वृहद् गुर्वावली, पृष्ठ १
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