________________ परम्परा में इस युग को नव्यन्याय युग कहें अथवा यशोविजय युग कोई अन्तर नहीं पड़ता। . भारतीय ज्ञान क्षितिज पर कतिपय जैन मनीषी प्रचण्ड सूर्य की भांति उभरे हैं और अपनी व्यापक आभा से विशाल क्षेत्र को दीर्घकाल तक प्रभासित किया है। विडम्बना यह है कि परम्परा ने औपचारिक कर्मकाण्ड और विधि-विधान के कुहासे से ढंककर ज्ञान के प्रकाश के ऐसे जाज्वल्यमान और शाश्वत स्रोतों को धूमकेतु मात्र बना कर रख दिया। उपाध्याय यशोविजय जी एक ऐसे ही सूर्य थे। पं. सुखलाल जी के इस मंतव्य में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि इस क्रान्तिकारी महापुरुष का स्थान जैन परम्परा में ठीक वही है जो वैदिक परम्परा में जगद्गुरु शंकराचार्य का है। सुरेन्द्र बोथरा जयपुर नवम्बर-1995 आधार------- 1. गुर्जर साहित्य संग्रह-प्रथम भाग (1936) 2. जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास-मोहनलाल दलीचंद देशाई (1933) 3. जैन साहित्य संशोधन मण्डल पत्रिका नं. 21 (1949) 4. यशोविजय स्मृति ग्रंथ-सं. मुनि श्री यशोविजयजी (1957)