________________ प्रतिपादन उनका सूक्ष्म और विशद है। वे जब योगशास्त्र या गीता आदि के तत्त्वों का जैन मन्तव्य के साथ समन्वय करते हैं तब उनके गम्भीर चिन्तन का और आध्यात्मिक भाव का पता चलता है। उनकी अनेक कृतियां किसी अन्य ग्रन्थ की व्याख्या न हो कर मूल, टीका या दोनों रूप से स्वतन्त्र ही हैं / जब कि अनेक कृतियां प्रसिद्ध पूर्वाचार्यों के ग्रन्थों की व्याख्या रूप हैं। उपाध्याय जी थे पक्के जैन और श्वेताम्बर / फिर भी विद्याविषयक उनकी दृष्टि इतनी विशाल थी कि वह अपने सम्प्रदाय मात्र में समा न सकी। अतएव उन्होंने पातंजल योगसूत्र के ऊपर भी लिखा और अपनी तीव्र समालोचना की। लक्ष्य दिगम्बर परम्परा के सूक्ष्मप्रज्ञ तार्किक-प्रवर विद्यानन्द के कठिनतर अष्टसहस्त्री नामक ग्रन्थ के ऊपर कठिनतम व्याख्या भी लिखी।" - यशोविजय जी की अपनी लेखनी से यह जानकारी मिलती है कि “ऐं” कार नामक बीजाक्षर की साधना के फलस्वरूप सरस्वती देवी ने प्रसन्न होकर गंगा तट पर उन्हें दर्शन दिये और अपना वरदहस्त उनके मस्तक पर रखा। इसी कारण उनकी अधिकतर रचनाओं के शीर्ष पर ऐंद्र शब्द मिलता है। सरस्वती के इस उपासक ने वाग्देवी के वारदान को अपनी अथक तपस्या से सार्थक किया। इस शारदापुत्र ने विद्वद् समुदाय को इतना प्रभावित किया कि उसे कूर्चाल शारद (दाढ़ी-मूंछ वाली सरस्वती) जैसे अनोखे विरुद से विभूषित करना पड़ा। वि सं. 1743 में बडौदा के निकटवर्ती डभोई ग्राम में सरस्वती का यह अनन्य उपासक अनशन पूर्वक समाधि मरण को प्राप्त हुआ। उनके समकालीन मुनि कांतिविजय जी के - शब्दों में “संवेगी शिरोमणि, ज्ञानरत्नसमुद्र तथा कुमति तिमिर उच्छेदक बालारुण दिनकर गुरु अदृश्य हो गया।" यशोविजय जी जैन शासन के उन परम प्रभावक महापुरुषों में अन्तिम थे जिनके द्वारा कथित अथवा लिखित शब्द प्रमाण स्वरूप माना जाता है। ये युग प्रवर्तक महापुरुष थे इस में कोई संदेह नहीं।