________________ कोई अन्य तथ्य मिलते हैं। इस कारण भी अनेक किंवदंतिया प्रचलित हैं। यथार्थ जो भी रहा हो पर यह बात निश्चित है कि दोनों के मन में एक दूसरे के प्रति आदर और सहज आत्मीयता की भावना जाग उठी थी। इसकी झलक श्रीमद् से साक्षात की घटना से प्रेरित हो यशोविजय जी द्वारा रचित अष्ट पदियों में मिलती है। एक उदाहरण : आनंदघन के संग सुजस ही मिले जब, तब आनंद सम भयो सुजस / पारस संग लोहा जो फरसत, कंचन होत ही ता के कस। अन्य परम्परा के संत के प्रति ये उद्गार यशोविजय जी के विनय की झलक देते हैं। विद्या ने उन्हें विनय दिया था, न कि अहंकार / वे शुष्क तार्किक थे यह बात आधारहीन है। वे यदि शुष्क तार्किक पण्डित मात्र होते तो उनकी कृतियों में केवल पांडित्य ही दिखाई देता। वैसा नहीं है। उनकी कृतियों में दिखाई देता है एक संवेदन शील कवि, आत्मसाधना को समर्पित, जन-जन में मुक्ति के मार्ग के प्रति प्रेरणा फूंकने में प्रयत्नरत एक सहृदय उपदेशक। जैन् दर्शन में रही आध्यामिकता का साररूप उनका ज्ञानसार नामक ग्रन्थ उनके इन गुणों का उत्कृष्ट उदाहरण है। स्वनामधन्य जैन विद्वान पं. दलसुख भाई मालवणिया के शब्दों में “यशोविजय ने सिर्फ दर्शन के विषय में ही लिखा यह बात नहीं है। आगमिक अनेक गहन विषयों की सूक्ष्म चर्चा, आध्यात्मिक शास्त्र की चर्चा, योगशास्त्र, अलंकार और आचार शास्त्र की चर्चा करने वाले भी अनेक पाण्डित्य पूर्ण ग्रन्थों की रचना करके जैन वाङ्मय को उन्नत भूमिका के ऊपर स्थापित करके अपने सर्व शास्त्र-वैशारद्य का प्रदर्शन किया है।" यशोविजय जी के सृजन और पांडित्य की गहराई और विशालता के विषय में प्रसिद्ध जैन चिन्तक पं. सुखलाल जी का कहना है, “शैली की दृष्टि से उनकी कृतियां खंडनात्मक भी हैं, प्रतिपादनात्मक भी हैं और समन्वयात्मक भी। जब वे खण्डन करते हैं तब पूरी गहराई तक पहुंचते हैं।