________________ 18 सिद्धान्तों का खण्डन किया। अन्य अनेक ग्रन्थ उन्होंने अपनी इस तार्किक शैली में रचे जिससे जैन दार्शनिक परम्परा पुन: जागृत हो उठी। ऐसी मौलिक रचनाओं के साथ-साथ उन्होंने अनेकान्तवाद के श्रेष्ठ और जटिल प्राचीन ग्रन्थ अष्ट सहस्त्री का विवरण लिखा तथा हरिभद्रसूरि के शास्त्रवार्तासमुच्चय की स्याद्वादकल्पलता नाम की टीका की भी रचना की। उनके इन सभी ग्रन्थों को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि यशोविजय जी एक शुष्क तार्किक, बुद्धिवादी, अभिमानी तथा अपनी परम्परा के एकान्त पुष्ट पोषक विद्वान रहे होंगे। उनके तथा उनकी परम्परा के विरोधी लोगों ने दबे या छुपे शब्दों में यह मत प्रकट भी किया और आज भी करते रहते हैं। उनकी अपनी परम्परा वाले ऐसी निराधार बातों के खण्डन में जुटे रह कर वितण्डावाद तथा वैमनस्य को प्रोत्साहन देते हैं। पर ये दोनों चेष्टाएं ही हास्यास्पद लगती हैं। यशोविजय जी जिस स्तर के साधक थे वह स्तर किसी भी पारंपरिक, सांप्रदायिक अथवा एकान्तिक दृष्टिकोण से कहीं ऊंचा होता है। उस स्तर के मनीषी जब खण्डन करते हैं तो वह किसी वाद का नहीं होता वह होता है मिथ्या का। उसी प्रकार वे पुष्टि करते हैं सत्य की न कि किसी मत विशेष की। उनकी यह विशुद्ध सत्यान्वेषी वृत्ति तथा समन्वयात्मक दृष्टिकोण परिलक्षित होता है उनकी और अध्यात्म योगी आनन्दघन जी, जो खरतरगच्छ परम्परा के थे, के साक्षात की घटना में। दोनों महान आत्माएं समकालीन थीं। श्रीमद् आयु में वरिष्ठ थे। एक प्रचण्ड तेजस्वी विद्वान और दूसरा गहन आत्मानुभवी आध्यात्म पथ का साधक। दोनों को एक दूसरे की उपस्थिति का भान भौतिक तथा पराभौतिक स्तरों पर होना तथा साक्षात की ललक का जन्म लेना स्वाभाविक था। साक्षात हुआ तो दोनों की आंतरिक ऊर्जाओं का समागम हुआ। दोनों ने एक दूसरे को जो कुछ दिया-लिया वह हमारी समझ से परे है। फिर विवाद को स्थान ही कहां है / पर, परोक्ष अनुभव को शब्दों में बांध अपने आग्रहों को उस पर थोपने का कार्य हम करते ही रहते हैं। उस घटना का न तो कोई साक्षी है और न ही