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धर्मशास्त्र का इतिहास * महापातकों में प्रथम स्थान ब्रह्महत्या को दिया गया है। गौ० (२२२-१०), आप० ५० सू० (१।९।२४।१०-२५ एवं १।९।२५।१२-१३), वसिष्ठ (२०।२५-२८), विष्णु० (३५।६ एवं ५०।१-६ एवं १५), मनु (११७२-८२), याज्ञ० (३।२४३-२५०), अग्नि. (१६९।१-४ एवं १७३।७-८), संवर्त (११०-११५) आदि ने विभिन्न प्रायश्चित्तों की व्यवस्था दी है। मनु ने बहुत-सी बातें कहीं हैं। भविष्य (कुल्लूक, मनु १११७२-८२; अपरार्क पृ० १०५५ एवं प्राय० वि० पृ० ६३) ने ब्रह्महत्या के विषय में मनु द्वारा स्थापित १३ विभिन्न प्रायश्चित्त गिनाये हैं। सामान्यतः नियम यह
कि ब्रह्महत्यारों को मृत्यु-दण्ड मिल जाना चाहिए। प्रायश्चित्तविवेक की अपनी टीका तत्त्वार्थकौमुदी' में गोविन्दानन्द ने १३ प्रायश्चित्तों का वर्णन निम्न प्रकार से किया है।
(१) ब्रह्मघातक को वन में पर्णकुटी बनाकर १२ वर्षों तक रहना चाहिए; उसे भिक्षा पर जीना चाहिए और एक दण्ड पर मृत व्यक्ति की मस्तक-अस्थि का एक टुकड़ा सदैव रखकर चलना चाहिए। यह एक अति प्राचीन
त है। अन्य स्मतियों ने कुछ और बातें भी जोड़ दी हैं, यथा-गौतम (२२१४) के मत से पापी को वैदिक
री के नियमों (मांस, मधु आदि का प्रयोग न करना) का पालन करना चाहिए। उसे ग्राम में केवल भिक्षा के लिए जाना चाहिए और अपने पाप का उद्घोष करना चाहिए। याज्ञ० (२।२४३) के मत से उसे बायें हाथ में मस्तक की हड्डी का एक टुकड़ा और दाहिने हाथ की छड़ी में एक अन्य टकड़ा रखना चाहिए तथा दिन में केवल एक बार भोजन करना चाहिए। हड्डी के टुकड़े का यह तात्पर्य नहीं है कि वह उसमें भिक्षा माँगेगा, किन्तु इस विषय में कई मत हैं। आप० घ० सू० (११९।२४।१४) के मत से उसे एक टूटे लाल (मिट्टी या ताँबे के) पात्र में केवल सात घरों से ही भिक्षा मांगनी चाहिए और यदि उन सात घरों से भोजन न मिले तो उस दिन उसे भूखा रहना चाहिए। उसे घुटनों के ऊपर एक कछनी मात्र पहननी चाहिए; उसे गाय-पालन करना चाहिए और उसी के लिए (गायों को चराने के लिए ले जाने और पुनः लौटाने के लिए) ग्राम में प्रवेश करना चाहिए। मिताक्षरा (याज्ञ० ३।२४३) ने जोड़ा है कि छड़ी में सया बायें हाथ में मृत व्यक्ति की हड्डी रखने का तात्पर्य यह है कि वह सदैव अपने दुष्कर्म का स्मरण करता रहे तथा अन्यों को अपने पाप का स्मरण दिलाता रहे; उसे किसी आर्य को देखकर मार्ग छोड़ देना चाहिए (गौ० २२।६); उसे दिन में खड़ा रहना चाहिए और रात्रि में बैठना चाहिए एवं दिन में तीन बार स्नान (गौ० २२१६) करना चाहिए। मिता. ने यह भी कहा है कि यदि मृत ब्राह्मण के मस्तक की हड्डी न मिले तो किसी अन्य मृत ब्राह्मण के मस्तक की हड्डी ले लेनी चाहिए। मिताक्षरा ने यह भी कहा है कि गौतम, मनु एवं याज्ञ० के अनुसार यह व्रत १२ वर्षों तक चलता रहना चाहिए (याज्ञ० ३।२४३)। मिताक्षरा एवं कुल्लूक (मनु १११७२) का कथन है कि यदि ब्रह्महत्या अनजान में हुई हो तो यह व्रत १२ वर्षों तक चलना चाहिए, किन्तु जान-बूझकर की गयी ब्रह्महत्या के लिए अवधि दूनी अर्थात् २४ वर्षों की होती है। मिताक्षरा (याज्ञ० २।२४३) के मत से केवल घातक को १२ वर्षों तक यह व्रत करना चाहिए, अनुग्राहक को ९ वर्षों, प्रयोजक को ६ वर्षों, अनुमन्ता को ४३ वर्षों तथा निमित्ती को केवल ३ वर्षों तक व्रत करना चाहिए। मिताक्षरा (याज्ञ० २।२४३) ने मनु एवं देवल का हवाला देकर कहा है कि यदि कई ब्रह्महत्याएँ की जायें
और प्रायश्चित्त एक ही बार हो तो दो हत्याओं के लिए २४ वर्षों, तीन हत्याओं के लिए ३६ वर्षों का व्रत होना चाहिए तथा चार हत्याओं के लिए केवल मृत्युदण्ड ही प्रायश्चित्त है। प्रायश्चित्ततत्त्व (पृ० ४६८) के मत से, जैसा कि भविध्यपुराण में भी आया है, कई हत्याओं के लिए १२ वर्षों की अवधि ही पर्याप्त है (यह मत 'क्षामवती इष्टि' के आधार पर है, अर्थात् जब दुर्घटनावश आहुति देने के पूर्व ही पुरोडाश एवं घर भस्म हो जाय तो इस इष्टि से मार्जन कर दिया जाता है (जैमिनि ६।४।१७-२०)। यही बात प्रायश्चित्तप्रकाश ने भी कही है। यदि ब्रह्मघातक क्षत्रिय या वैश्य या शूद्र हो तो उसे क्रम से २४, ३६ एवं ४८ वर्षों तक प्रायश्चित्त करना पड़ता था (स्मृत्यर्थसार पृ० १०५)। वन में पर्णकुटी बनाकर रहने के स्थान पर वह ग्राम के अन्त भाग में या गोशाला में रह सकता है, वह अपना सिर एवं
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