________________
१२३८
धर्मशास्त्र का इतिहास
कटाना, शरीर में तेल लगाना, दातुन से दांत स्वच्छ करना । आमंत्रित ब्राह्मणों के लिए (केवल) निम्न बातें पालनीय थ - आमंत्रण स्वीकार कर लेने के उपरान्त अनुपस्थित न होना, भोजन के लिए बुलाये जाने पर देर न करना (देखिए श्राद्धकलिका एवं श्राद्ध पर पितृभक्ति ) । "
अति प्राचीन काल से श्राद्ध में प्रयुक्त होनेवाले पदार्थों एवं पात्रों (बरतनों) तथा उसमें प्रयुक्त न होनेवाले पदार्थों के विषय में विस्तृत नियम चले आये हैं । आप० ध० सू० (२।७।१६।२२-२४ ) में आया है" - 'श्राद्ध के द्रव्य ये हैं- तिल, माष, चावल, यव, जल, मूल एवं फल; किन्तु पितर लोग घृतमिश्रित भोजन से बहुत काल के लिए सन्तुष्ट हो जाते हैं; उसी प्रकार वे न्यायपूर्ण विधि से प्राप्त धन से और उसे योग्य व्यक्तियों को दिये जाने से सन्तुष्ट होते हैं।' और देखिए मन ( ३ । २६७ = वायु० ८३।३) । याज्ञ० ( १ । २५८ ) केवल इतना कहते हैं कि जो भोजन यज्ञ में अर्पित होता है (हविष्य) वही खिलाना चाहिए। मनु ( ३।२५७) ने व्याख्या की है कि जंगल में यतियों द्वारा खाया जानेवाला भोजन, (गाय का दूध, सोमरस, बिना मसालों से बना मांस ( अर्थात् जो खराब गंध से मुक्त हो ) एवं पर्वतीय नमक स्वभावतः यज्ञिय भोजन (हविष्य ) है । गौतम ० (२७।११ ) के मत से यज्ञिय भोजन ( हविष्य ), यह है - पका हुआ चावल ( भक्त या भात), भिक्षा से प्राप्त भोजन, पीसा हुआ यव ( उबाला हुआ, सेका हुआ या सत्तू ) भूसी निकाला हुआ अन्न, यवागू या यावक, शाक, दूध, दही, घृत, मूल, फल एवं जल ।" स्मृतियों एवं निबन्धों ने प्रारम्भिक ग्रन्थों में दिये गये इन संक्षिप्त संकेतों को बढ़ा दिया है। तीन प्रकार के धन ( शुक्ल, शबल एवं कृष्ण ) एवं अन्य न्यायोचित ढंग से प्राप्त ( अनिषिद्ध ) धन के विषय में देखिए इस ग्रन्थ का खण्ड २, अध्याय ३ । मार्कण्डेय ० (२९।१४-१५) ने घूस से प्राप्त धन या पतित ( महापातक के अपराधी ) से लिये गये धन, पुत्री की बिक्री से प्राप्त घन, अन्यायपूर्ण ढंग से प्राप्त धन, 'पिता का श्राद्ध करना है अतः कुछ धन दीजिए' इस कथन से प्राप्त धन को भर्त्सना की है (स्मृति०, श्राद्ध, पृ० ४१२ ) । स्कन्द० ने सात बातों की शुचिता पर बल दिया है-कर्ता की शुचिता, द्रव्य, पत्नी, श्राद्ध-स्थल, मन, मन्त्रों एवं ब्राह्मणों की शुचिता । मन ( ३ । २३५ = वसिष्ठ० ११।३५) का कथन है-'श्राद्ध में तीन वस्तुएँ शुद्धिकारक हैं, यथा-दौहित्र, नेपाल का कम्बल एवं तिल; श्राद्ध में तीन बातों की प्रशंसा होती है, यथा-स्वच्छता, क्रोधहीनता और त्वरा ( शीघ्रता) का अभाव । " प्रचेता ने श्राद्ध में प्रयुक्त कतिपय अन्नों का
५५. निमन्त्रितः श्राद्धकर्ता च पुनर्भोजनं श्रमं हिंसां त्वरां प्रमादं भारोद्वहनं दूरगमनं कलहं शस्त्रग्रहणं च वर्जयेत् । शुचिः सत्यवादी क्षमी ब्रह्मचारी च स्यात् । ( श्रीदत्त का पितृभक्ति नामक ग्रन्थ) ।
५६. तत्र द्रव्याणि तिलभाषा व्रीहियवा आपो मूलफलानि । स्नेहवति स्वेवाने पितॄणां प्रीतिर्ब्राघीयांसं च कालम् । तथा धर्माहृतेन द्रव्येण तीर्थप्रतिपन्नेन । आप० घ० सू० (२।७।१६।२२-२४) ।
५७. चरुभैक्षसक्तुकणयावकशाकपयोदधिघृतमूलफलोदकानि हवोष्युत्तरोत्तरं प्रशस्तानि । गौतम ० (२७।११ ) । नारायण (आश्व० गृ० ११९१६) ने इसी के अनुरूप अर्थ वाला एक श्लोक उद्धृत किया है—'पयो दधि यवागूश्च सपिरोदनतण्डुलाः । सोमो मांसं तथा तैलमापस्तानि दशैव तु ॥'
५८. त्रीणि श्राद्धे पवित्राणि दौहित्रः कुतपस्तिलाः । त्रीणि चात्र प्रशंसन्ति शौचमक्रोधमत्वराम् ॥ मनु (३) २३५) एवं वसिष्ठ ० ( ११।३५) । और देखिए विष्णुपुराण (३।१५।५२), भविष्य ० ( १।१८५।२० ), मार्कण्डेय ० ( २८०६४), स्कन्द ० ( प्रभासखण्ड, २०५ ।१३ ) एवं पद्म० ( सृष्टि०, ४७।२७८-२७९) । मनु के पूर्ववर्ती श्लोक से पता चलता है कि दौहित्र का अर्थ है 'कन्या का पुत्र'। किन्तु स्कन्द० ( प्रभासखण्ड, २०५।१४ ) में इसके कई अर्थ हैं, यथा- 'गैंडे के सींग से बना पात्र', या 'चितकबरी गाय के दूध से बना हुआ घृत।' अपराकं ( पृ० ४७४ )
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org