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धर्मशास्त्र का इतिहास
है " यहाँ श्राद्धकर्म का फल विद्वान् ब्राह्मण के भोजन कराने से संबंधित है। इस विषय में देखिए जैमिनि ( ४ | १४ | १९ ) की पूर्व मीमांसा द्वारा उपस्थापित न्याय और वेदान्त पर शांकरभाष्य ( २।१।१४ ) और जैमिनि ( ४/४/२९३८ ) - 'जो किसी कृत्य की समीपता में वर्णित होता है उससे फल की प्राप्ति तो होती है किन्तु कोई विशिष्ट फल नहीं मिलता, किन्तु वह घोषित फल का अंग मात्र होता है।' कुछ श्राद्धों में पिण्डदान नहीं होता, यथा आमश्राद्ध तथा उन श्राद्धों में जो युगादि दिनों में किये जाते हैं।" कर्क जैसे लोगों का कथन है कि श्राद्ध में पिण्डदान ही मुख्य विषय है । वे इस तथ्य पर निर्भर हैं कि गया में पिण्डदान ही मुख्य विषय है, और विष्णुधर्मसूत्र (७८।५२-५३ एवं ८५ १६५-६६ ), वराह० ( १३५०), विष्णुपुराण (३।१४१२२-२३), ब्रह्म० (२२०1३१-३२), विष्णुधर्मोत्तर ० ( १।१४५१३ - ४ ) के आधार पर कहते हैं कि पितरों की ऐसी उत्कट इच्छा होती है कि उन्हें कोई पुत्र हो जो गया या पवित्र नदियों आदि पर उनके पिण्डदान करे । इस मत की पुष्टि में यह बात भी कही गयी है। कि पुत्रोत्पत्ति पर किये गये श्राद्ध में तथा सत् शूद्र द्वारा किये गये श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन निषिद्ध है। एक तीसरा मत यह है कि श्राद्ध में ब्राह्मणभोजन एवं पिण्डदान दोनों प्रमुख विषय हैं। गोभिलस्मृति ( ३।१६० १६३) ने भी इस तीसरे मत का समर्थन किया है। उन विषयों में जहाँ 'श्राद्ध' शब्द प्रयुक्त होता है और जहाँ ब्राह्मणभोजन एवं पिण्डदान नहीं होता, यथा - देवश्राद्ध में, वहाँ यह शब्द केवल गौण अर्थ में ही प्रयुक्त होता है। देखिए हेमाद्रि ( श्रा०, पृ०१५७- १६० ) । धर्मप्रदीप में कहा गया है कि यजुर्वेद के अनुयायियों ( वाजसनेयियों) में पिण्डों का दान ही प्रमुख है, ऋग्वेद के अनुयायियों में ब्राह्मणभोजन तथा सामवेद के अनुयायियों में दोनों प्रमुख विषय माने जाते हैं। अतः स्पष्ट है कि श्राद्ध के दो स्वरूप हैं; यह याग (यज्ञ) है और दान भी। हरदत्त, हेमाद्रि, कपर्दी आदि, ऐसा प्रतीत होता है, भोजन, पिण्डदान एवं अग्नीकरण तीनों को प्रमुख मानते हैं। देखिए संस्काररत्नमाला ( पृ०१००३) ।
सपिण्ड सम्बन्ध सात पीढ़ियों तक होता है, जैसी कि मत्स्य ० ( १३।२९ ) की एक प्रसिद्ध उक्ति है; 'चौथी पीढ़ी से (कर्ता के प्रपितामह के पिता, पितामह एवं प्रपितामह) पितर लोग लेपभाजः (श्राद्धकर्ता के हाथ में लगे पिण्डावशेषों के भागी) होते हैं; (पिण्डकर्ता के ) पिता, पितामह एवं प्रपितामह पिण्ड पाते हैं; पिण्डकर्ता सातवाँ होता है।" साप्तपौरुष सम्बन्ध के विषय में मार्कण्डेय ० ( २८०४ - ५ ) में भी उल्लेख है। " और देखिए ब्रह्म० (२२०।८४-८६ ) | मनु ( ३।२१६) ने व्यवस्था दी है कि कर्ता को दर्भों पर तीन पिण्ड रखने चाहिए और तब हाथ में लगे भोजनावशेष एवं जल को दर्भों की जड़ से ( जिन पर पिण्ड रखे हुए थे ) हटाना चाहिए। यह झाड़न उनके लिए होता है जो लेपभागी (प्रपितामह
९८. पुष्कलं फलमाप्नोतीत्यभिधानाद् ब्राह्मणस्य भोजनमत्र प्रधानम् पिण्डदानादि त्वंगमित्यवसीयते । गोविन्दराज ( मनु० ३।१२९ ) । कुल्लूक ने भी इस मत के लिए यही श्लोक उद्धृत किया है।
९९. तथा च पुलस्त्यः । अयनद्वितये श्राद्धं विषुवद्वितये तथा । युगादिषु च सर्वासु पिण्डनिर्वपणादृते ।। इति । कर्तव्यमिति शेषः । स्मृतिच० ( श्रा०, पृ० ३६९ ) । और देखिए हेमाद्रि ( श्रा०, पृ० ३३४-३३६) ।
१००. ले भाजश्चतुर्याद्याः पित्राद्याः पिण्डभागिनः । पिण्डदः सप्तमस्तेषां साविण्डयं साप्तपौरुषम् ॥ मत्स्य० ( १८।२९ ) । ये ही पद्य पद्म ( सृष्टिखंड १०।३४-३५) में भी आये हैं, जिसमें 'सपिण्डाः सप्तपुरुषाः ' पाठ है । और देखिए अपरार्क (१०५०७ ) । मत्स्य ० ( १६ । ३८ ) में पुनः आया है -- तेषु दर्भेषु तं हस्तं निमृज्यात्लेपभागिनाम् ।
१०१. लेपसम्बन्धिनश्चान्ये पितामहपितामहात् । प्रभृत्युक्तास्त्रयस्तेषां यजमानश्च सप्तमः । इत्येवं मुनिभिः प्रोक्तः सम्बन्धः साप्तपौरुषः । मार्कण्डेय० (२८।४-५) । देखिए दायभाग ( ११।४१), जिसने मृत्यु से उत्पन्न आशौच से इसे सम्बन्धित किया है।
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