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धर्मशास्त्र का इतिहास
सम्बन्धित है। उद्योग ० १९।२३-२४, १६६ ४, अनु० २६, पद्म० २।९२।३२, ६।११५१४, भाग ०९।१५।२२ (सहस्रार्जुन ने रावण को बन्दी बनाया था) । महाभाष्य (जिल्द २, पृष्ठ ३५, उज्जयिन्याः प्रस्थितो माहिष्मत्यां सूर्योद्गमनं सम्भावयते), पाणिनि ( ३।१।२६ ) के वार्तिक १० पर । सुत्तनिपात (एस०बी०ई०, जिल्द १०, भाग २, पृष्ठ १८८) में आया है कि बावरी के शिष्य बुद्ध से मिलने के लिए उत्तर जाते हुए सर्वप्रथम अटक के पतिट्ठाण को जाते हैं और उसके उपरान्त माहस्सती को। देखिए डा० फ्लीट का 'महिसमण्डल ऐण्ड माहिष्मती' (जे० आर० ए०एस०, १९१०, पृष्ठ ४२५४४७) एवं सुबन्धु का बर्वानी दानपत्र (एपि० इण्डि०, जिल्द १९, पृष्ठ २६१, दानपत्र ५वीं शताब्दी का है। महाहव--- ( बदरीनाथ के पास ) कूर्म० २।३७/३९,
अनु० २५।१८ (तीर्थकल्प०, पृष्ठ २४५-२४६) । मही -- ( १ ) ( हिमालय से निकली हुई दस महान् नदियों में एक) 'मिलिन्द प्रश्न' (संक्रेड बुक आव दि ईस्ट, जिल्द ३५, पृष्ठ १७१ में चर्चित ) ; मही पाणिनि (४/२/८७ ) के नद्यादिगण में उल्लिखित है; (२) ( ग्वालियर रियासत से निकली हुई और खंभात के पास दक्षिणाभिमूख समुद्र में गिरनेवाली एक नदी ) स्कन्द ० १ २ ३१२३, १२/१३।४३-४५ एवं १२५१२७, वन० २२२१२३, मार्कण्डेय ० ५४/१९ (पारियात्र से निकली हुई) यह 'टालेमी' पृष्ठ १०३ की मोफिस एवं 'पेरिप्लस' की मईज है । महेन्द्र -- ( यह एक पर्वत है जो गंगा या उड़ीसा के मुखों से लेकर मदुरा तक फैला हुआ है) भीष्म० ९।११, उद्योग० ११ १२, मत्स्य० २२।४४, पद्म० ११३९।१४ ( इस पर परशुराम का निवास था), वन० ८५११६, भाग० ५।१९।१६, वाम० १३११४-१५, ८३।१०-११, कू ० १ ४७ २३-२४ ( बार्हस्पत्य सूत्र ३।१२४ के मत से यह शाक्त क्षेत्र है ) । गंजाम जिले में लगभग ५००० फुट ऊँचा महेन्द्रगिरि का एक शिखर है। रामा० (४।६७/३७) में आया है कि यहीं से हनुमान् कूदकर लंका में पहुँचे थे। पाजिटर ( पृ० २८४ ) का कथन है
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कि यह गोदावरी एवं महानदी के मध्य में पूर्वी घाट का एक भाग और बरार की पहाड़ियों के रूप में है । किन्तु यह कथन संदेहात्मक है । रामा० (४।४१।१९-२१) पाण्डवाट के पश्चात् महेन्द्र का उल्लेख करके इसे समुद्र में प्रवेश करते हुए व्यंजित किया है, किन्तु भाग० १०१७९१११-१२ ने इसे गया के पश्चात् और सप्त गोदावरी, वेणा एवं पम्पा के पहले लिखा है। समुद्रगुप्त के प्रयाग स्तम्भाभिलेख में इसका उल्लेख है (कार्पस इन्सकृप्सनम् इण्डिकेरम्, जिल्द ३, पृ० ७ ) ।
महेश्वरधारा - वन० ८४ । ११७, पद्म० १।३८।३४। महेश्वरकुण्ड -- (लोहार्गल के अन्तर्गत ) वराह० १५१।६७ ।
महेश्वरपद - पद्म० ११३८ । ३६, वन० ८४ । ११९ । महोदय -- ( सामान्यतः इसे कनीज कहा जाता है) वाम० ८३।२५, ९०।१३ (यहाँ हयग्रीव रहते थे), देखिए भोजदेव प्रथम का दौलतपुर दानपत्र (एपि० इण्डिo, जिल्द ५, पृष्ठ २०८ एवं २११ ) । इसे कुशस्थल भी कहा जाता था; एपि० इण्डि० (जिल्द ७, पृष्ठ २८ एवं ३०) जहाँ यह व्यक्त है कि राष्ट्रकूट इन्द्र तृतीय ने महोदय का नाश किया था; किन्तु गुर्जर प्रतीहार भोजदेव के बराताम्रपत्र में ( ८३६-७ ई०) महोदय को स्कन्धावार ( युद्धशिबिर ) कहा गया है और वहीं कान्यकुब्ज को पृथक् रूप से व्यक्त किया गया है, जिससे स्पष्ट होता है कि दोनों एक नहीं हैं (एपि० इण्डि०, जिल्द १९, पृष्ठ १७) । मांकुणिका (मलय के पास ) वाम० ८३ । १६ । मागधारण्य - कूर्म० २।३७/९, वाम० ११।७, ८४।३५ । माठरवन -- ( पयोष्णी के पास) वन० २८।१०, वायु ०
७७ ३३, ब्रह्माण्ड ० ३।१३।३३ । माणिक्येश्वर - ( कश्मीर में ) पद्म० ६ । १७६।८० माण्डव्य -- (एक तीर्थ जहाँ देवी को माण्डव्या कहा गया है) मत्स्य० १३।४२ । माण्डव्येश -- ( वाराणसी के अन्तर्गत ) ती० कल्प०, पृ० ११९ ।
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