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१४८.
धर्मशास्त्र का इतिहास वन० (१०२।३), जहां आया है कि वसिष्ठाश्रम में वातोदका--(नदी, पाण्ड्य देश में) भाग० ४।२८।५। कालेयों ने १८८ ब्राह्मणों एवं ९ तापसों को खा वामन या वामनक- (कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत) वन० डाला। इस स्थान के विषय में सन्देह है।
८४।१३०, वन० ८३।१०३, अग्नि १०९।२०, पद्म० वसिष्ठेश- -(वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती० क०, ०२६।९६ (वामनक), ११३८५४७; (२) (गया के पृ० ४७)।
अन्तर्गत) नारदीय० २।४६।४६; (३) (साभ्रमती वसिष्ठापवाह - (सरस्वती पर) शल्य० ४२।४१ । के अन्तर्गत) पद्म० ६।१५३।२ (जहाँ सात नदियाँ वर्षनद्रुम---(कश्मीर में, विनायक गांगेय का एक बहती हैं)। देखिए इण्डियन एण्टीक्वेरी, जिल्द आयतन) नीलमत०११६ ।
५४ (अन्त में) पृ० ४१, जहाँ यह कहा गया है कि वसोर्धारा--वन० ८२।७६, पद्म० १।२४।२४ (इसने जूनागढ़ के दक्षिण-पश्चिम ८ मील दूर वंथली 'वसुवारा' पढ़ा है)
महाभारत का वामन-तीर्थ है। वस्त्रापथक्षेत्र ---(काठियावाड़ में गिरनार के आस-पास वामनेश्वर ---(नर्मदा के अन्तर्गत) पद्म० १।१८।२६ ।
की भूमि ) स्कन्द० ७।२।२।१-३ (यह प्रभास का वालखिल्येश्वर --(वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती० सार-तत्त्व है, इसे रैवतक क्षेत्र कहा जाता है), ७।२- कल्प०,१०६६)। ११।१६ (यह विस्तार में चार योजन है)। यहाँ वायव्यतीर्थ- (कुब्जाम्रक के अन्तर्गत) वराह० सुवर्णरेखा नदी है।
१२६।७५ । वसुतुंग---(यहाँ विष्णु की गुप्त उपाधि 'जगत्पति' है) वायुतीर्थ--(१) (वारा० के अन्तर्गत) कूर्म० ११ नृसिंह० (ती० क०, पृ० २५१)।
३५।५, पद्म० १।३७५; (२) (मथुरा के अन्तर्गत) वागीश्वरी--(गोदावरी के अन्तर्गत) ब्रह्म० १३५। वराह० १५२।६५; (३) (गया के अन्तर्गत) २६।
अग्नि० ११६।५। वाग्मती--(नदी, हिमालय से निकली हुई नेपाल की वालीश्वर--(वारा के अन्तर्गत) लिंग० (ती० कल्प०,
वाग्मती नदी) वराह० (२१५।४९) का कथन है पृ० ५१) । . कि यह भागीरथी से १०० गुनी पवित्र है। वाल्मीकेश्वर --(वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती० वाग्मती-मणिवती-संगम--वराह० २१५।१०६ एवं कल्प० पृ० ६६)। ११०।
वाल्मीकि-आश्रम -- (गंगा पर) रामा० ७।४७।१५, वाटिका---(कश्मीर में) नीलमत० १४५९ ।
७७ । देखिए 'स्थाणुतीर्थ' एवं 'तमसा' के अन्तर्गत। वाटोदका--(पाण्ड्य देश में नदी) भाग० ४।२८।- वानरक ---(गया के अन्तर्गत) अग्नि० ११६।६। यह
__ 'चानरके' का अशुद्ध रूप हो सकता है। वाटनदी--मत्स्य० २२॥३७ (यहाँ के श्राद्ध से अक्षय वारणेश्वर --(नर्मदा के अन्तर्गत) पद्म० १।१८।२९ । फल मिलता है)।
वाराणसी---देखिए पिछला अध्याय १३ । यद्यपि वारावाणी-संगम --(गोदावरी के अन्तर्गत) ब्रह्म० १३५॥ णसी एवं काशी दोनों समानार्थक कहे जाते हैं, किन्तु १एवं २३।
ऐसा प्रतीत होता है कि काशी गंगा के पूर्व भाग में वातेश्वर--(वाराणसी के अन्तर्गत) लिंग० (ती० कल्प० एवं वाराणसी पश्चिम भाग में है। पृ० ६६)।
वारिधार--(पर्वत) भागवत० ५।१९।१६ । बातेश्वरपुर--पद्म० ११३८।४६ ।
वारुणतीर्थ-बन० ८३.१६४, ८८। १३ (पाण्ड्य देश वातिक-(कश्मीर में) नीलमत० १४५९ । में) बाई ० ३।८८ (पूर्वी समुद्र के किनारों पर)।
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