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धर्मशास्त्र का इतिहास सौगन्धिकवन-वन० ८४१४, पद्म० ११२८१५-६ वाम०४०।३ (सरस्वती के उत्तरी तट पर), ४२।३० (दोनों में एक ही श्लोक है)।
(यहाँ १००० लिंग थे), ४९।६-७ (यह सानिहत्य सौभद्र--आदि० २१६१३ (दक्षिणी समुद्र पर पांच झील पर था)। वाम० (अ० ४७-४९) ने इस नारी-तीर्थों में एक)।
तीर्थ के माहात्म्य के विषय में लिखा है। दे (पृ० सौमित्रिसंगम--(श्राद्ध के लिए अति उत्तम) मत्स्य १९४) के अनुसार यह थानेश्वर ही है। २२।५३।
स्थानेश्वर--(आधुनिक थानेश्वर, जो अम्बाला से स्कन्दतीर्थ-(नर्मदा के अन्तर्गत) पद्म० १११८।१९, २५ मील दक्षिण है) मत्स्य० १३३३ (यहाँ की देवी मत्स्य० १९११५०।
भवानी हैं)। देखिए ऐं० जि०, पृ० ३२९-३३२ । स्कन्देश्वर--(वारा० में) स्कन्द० ४।३३।१२५, लिंग० महमूद गजनवी ने इसे १८१४ ई० में लूटा। (तो० क०, पृ० ६८)।
हर्षचरित में बाण ने इसे स्थाण्वोश्वर देश स्नानकुण्ड--(मथरा के अन्तर्गत) वराह० १४३। कहा है। १८-२०।
स्थानेश्वर--(एक लिङ्ग, वारा० में) लिङ्ग. ११९२।स्तनकुण्ड--वन० ८४११५२, वराह० २१५।९७ (स्तनकुण्डे उमायास्तु)।
स्वच्छोद--(यह झील है) देखिए 'अच्छोद।' स्तम्भतीर्थ-(खम्भात की खाड़ी पर स्थित आधुनिक स्वच्छोदा-(नदी) ब्रह्माण्ड० २११८।६, (चन्द्रप्रभ
खम्भायत) कुर्म० २।४११५१, पद्म० १११८१९३ नामक पर्वत पर स्वच्छोद झील से निकली हुई)। (दोनों इसे नर्मदा के अन्तर्गत कहते हैं)। स्तम्भतीर्थ स्वतंत्रेश्वर--(नर्मदा के अन्तर्गत) मत्स्य० १९१।६। तीर्थसार (पृ० १०१) में उल्लिखित है। देखिए स्वयम्भूतीर्य- (कश्मीर के मच्छीपुर परगने में आधुनिक
इण्डियन ऐण्टिक्वेरी, जिल्द ५४ पृ० ४७ । सुयम) राज० ११३४, ह० चि० १४१८० । यहाँ पर स्तम्भाख्य-तीर्थ-(मही-सागर संगम के पास) स्कन्द० ज्वालामुखी के रूप दिखाई पड़ते हैं और कभी-कभी
११२।३।२७। सम्भवतः यह उपर्युक्त तीर्थ ही है। यात्रियों द्वारा अर्पित श्राद्ध-आहुतियाँ पृथ्वी से निवस्तम्भेश्वर--स्कन्द० ११२।३।४० ।
लती हुई वाष्पों द्वारा जल उठती हैं। स्थलेश्वर-- (एक शिवतीर्थ) मत्स्य० १८१।२७। स्वर्गतीर्थ-अनु० २५।३३। स्तुतस्वामी--(मणिपूर गिरि पर एक विष्णुक्षेत्र) स्वर्गद्वार---(१) (कुरुक्षेत्र के अन्तर्गत) पद्म १।२७।५५;
वराह० १४८६८-८१ । तीर्थकल्प० (२२२-२२४) (२) (वारा के अन्तर्गत) कूर्म १॥३५॥४, पद्म० ने वराह० के १४८ वें अध्याय से बिना किसी टीका १।३७।४; (३) (गया के अन्तर्गत) अग्नि० ११६।४ टिप्पणी के २० श्लोक उद्धृत कर लिये हैं। श्लोक (यहाँ 'स्वर्गद्वारी' शब्द आया है; (४) (पुरुषोत्तम ७५-७६ में नाम की व्याख्या हुई है (यह देवता अन्य के अन्तर्गत) नारदीय० २।५६।३१ । देवताओं एवं नारद, असित तथा देवल ऋषियों द्वारा स्वर्गबिन्दु-(नर्मदा के अन्तर्गत) पद्म. १।२१।१५ । 'स्तुत' थे)। दे ने इसकी चर्चा नहीं की है और प्रो० स्वर्गमार्गह्रद--वि० ध० सू० ६५।४१ ।
आयंगर, ने भी इसकी पहचान नहीं की है। स्वर्गेश्वर--(वारा० के अन्तर्गत) लिंग० (ती० क०, स्त्री-तीर्घ--(नर्मदा के अन्तर्गत) मत्स्य० १९४।३१। पृ० ४८)। स्थाणतीर्थ-- (सरस्वती के अन्तर्गत, जहाँ वसिष्ठ का स्वर्णबिन्दु--(नर्मदा के अन्तर्गत) अनु० २५।९, मत्स्य.
आश्रम था) शल्य० ४२१४, (वसिष्ठ का आश्रम इस १९४११५ । तीर्थ के पूर्व में है और विश्वामित्र का पश्चिम में), स्वर्णरेखा--(नदी, वस्त्रापथ क्षेत्र में, अर्थात् आधुनिक
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