Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 3
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 610
________________ धर्मशास्त्रीय ग्रन्थसूची १६०३ एक पाण्डु० की तिथि शक १३२६ (१३९८-९९ विशुविदर्पण--रघु० द्वारा। आशौच के दो प्रकारों ई०) है; दे० बी० बी० आर० ए० एस०, भाग १, (जननाशीच एवं शावाशीच) पर! पृ० १०९ सं० ३२२ । महादेव के मुहूर्तदीपक एवं विश्वदीप-आचारार्क में वर्णित । टोडरानन्द में व० । टी० दीपिका, केशव के पुत्र विश्वदेवदीक्षितीय। गणेशदैवज्ञ द्वारा; शक १४७६ (१५५४-५ ई०), विश्वनाथभट्टी-से० प्रा० (सं० ५१९७)। दे० बी० बी० आर० ए० एस्. (भाग १, पृ० ११०, विश्वप्रकाश--ड० का० पाण्डु० (मं० १४४, १८८४सं० ३३४) और भण्डारकर रिपोर्ट (१८८३-८४ ई०, ८६)। वाजसनेय लोगों के लिए: सन्ध्यावन्दन, १० ३७२-३७३), जहां कहा गया है कि गणेश ने कृष्ण जन्माष्टमीनिर्णय, ग्रह्ण निर्णय एवं श्राद्ध जैसे सर्वप्रथम 'ग्रहलाघव' लिखा और तब 'श्राद्ध-विधि' आह्निक कर्मों पर। और तब मुहुर्ततत्त्व की टी० लीलावती पर एक टी०। विश्वप्रकाशिकापद्धति-नारायणाचार्य के पुत्र त्रिविटी० कल्याणवर्मा द्वारा। क्रमात्मज पुरुषोत्तम के पुत्र एवं पराशरगोत्र वाले विवाहसौल्य-नीलकण्ठ द्वारा। लगता है, यह टोडरा- विश्वनाथ द्वारा! कतिपय कृत्यों एवं प्रायश्चित्तों नन्द का एक अंश है। पर; आपस्तम्ब पर आधारित। १५४४ ई० में विवाहाग्निनष्टिप्रायश्चित्त। प्रणीत । दे० नो० (जिल्द १०, पृ० २३३-२३५) । विवाहाविकर्मानुष्ठानपद्धति-भवदेव द्वारा। विश्वम्भरशास्त्र---शुद्रकमलाकर में व० विवाहाविप्रयोगतस्व-रघु० का कहा गया है (नो०, विश्वरूपनिबन्ध-कृत्यचिन्तामणि एवं नि० सि० में जिल्द ११, भूमिका, पृ० १४) । व०। दे० प्रक०६०। बीकानेर (पृ० ४९७, स० विवाहकन्यास्वरूपनिर्णय-अनन्तराम शास्त्री द्वारा। १९६७); विवाह में सपिण्ड सम्बन्ध पर, विशेषतः विविधविद्याविचारचतुरा-भोज द्वारा। क्रुद्ध देवों को कन्या के लिए माता एवं पिता से क्रमश: पांचवीं एवं प्रसन्न करने, वापी, कूप आदि के निर्माण के विषय में। सातवीं पीढ़ी के उपरान्त ! ह० प्र० (पृ० १३ एवं ६५), तिथि ल० सं० ३७२ विश्वरूपसमुच्चय--रघु० द्वारा उद्वाहतत्त्व में (जिल्द (१४९०-९१ ई०) । यह धारेश्वर भोज से भिन्न हैं। २, पृ० ११६) व०। विवेककोमुदी---रामकृष्ण द्वारा। शिखा एवं यज्ञोपवीत विश्वादर्श--गीतार्यप्रवीण आचार्यादित्य के पुत्र कवि धारण करने, विधि, नियम, परिसंख्या, स्नान, तिलक- कान्त सरस्वती द्वारा। लेखक काशी के विश्वेश्वर धारण, तर्पण, शिवपूजा, त्रिपुण्ड्र, प्रतिष्ठोत्सर्गभेद का भक्त था। आचार, व्यवहार, प्रायश्चित्त एवं ज्ञान के विषय में विवेचन। नो० (जिल्द १०, प० पर चार काण्डों में। प्रथम काण्ड में ४२ स्रग्धरा १०५-१०७)। श्लोकों एवं एक अनुष्टुप् छन्द में शौच, दन्तधावन, विवेकदीपक-दामोदर द्वारा। महादानों पर। संग्ग्राम- कुशविधि, स्नान, सन्ध्या, होम, देवतार्चन, दान के साह के तत्त्वावधान में संग्रहीत; पाण्डु० (इण्डि ० आहिक कृत्यों पर; दुसरे काण्ड (व्यवहार) में ४४ आ०, पृ० ५५१, सं० १७१६) की तिथि सं० १६३८ श्लोक विभिन्न छन्दों (मालिनी, अनुष्टुप्, मन्दाक्रान्ता (१५८२ ई०)। आदि) में; तीसरे काण्ड (प्रायश्चित्त) में ५३ विवेकमंजरी। श्लोकों (सभी स्रग्धरा, केवल अन्तिम मालिनी) विवेकसारवर्णन। में एवं चौथा काण्ड (ज्ञानकाण्ड) ५३ श्लोकों विवेकार्णव-श्रीनाथ द्वारा। लेखक के कृत्यतत्त्वार्गव (शार्दूलविक्रीड़ित, शिखरिणी, अनुष्टुप् आदि छन्द) __ में व०। १४७५-१५२५ ई०। में वानप्रस्थ, संन्यास, त्वंपदार्थ, काशीमाहात्म्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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