Book Title: Dharmshastra ka Itihas Part 3
Author(s): Pandurang V Kane
Publisher: Hindi Bhavan Lakhnou

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Page 504
________________ तीर्थसूची में मिलित कही गयी है। यह टालेमी ( पृ० ९९ ) की 'सरबोज' है। इसे घाघरा या घर्घर भी कहा जाता है। सरस्वती -- ( आधुनिक सरसुति) वह नदी जो ब्रह्मसर से निकलती है ( शल्य० ५१।१९ के मत से ), बदरिकाश्रम से (वाम० २।४२-४३), प्लक्ष वृक्ष से ( वाम० ३२।३-४ के मत से ) । पद्म० ५।१८। १५९-१६० ( सरस्वती से कहा गया है कि वह वाड़व अग्नि को पश्चिम के समुद्र में फेंक दे। सम्भवतः यह उस ज्वालामुखी विप्लव की ओर संकेत है जिसके फलस्वरूप सरस्वती अन्तर्हित हो गयी ) । वाम० ( ३1८) का कथन है कि शंकर ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त होने पर इसमें कूद पड़े थे, इससे यह अन्तर्हित हो गयी। वन ० (१३०1३-४ ) के अनुसार यह शूद्रों, निषादों एवं आभीरों के स्पर्श के भय से लुप्त हो गयी । अनु० ( १५५/२५ - २७ ) का कथन है कि सरस्वती उतथ्य के शाप से मरुदेश में चली गयी और सूखकर अपवित्र हो गयी । अन्तर्धान होने के उपरान्त यह चमसोर्भेद, शिवोद्भेद एवं नागोद्भेद पर दिखाई पड़ती है। सरस्वती कुरुक्षेत्र में 'प्राची सरस्वती' कहलाती है (पद्म० ५।१८।१८१-१८२ ) । देखिए विभिन्न सरस्वतियों के लिए दे (पृष्ठ १८०-१८१) । न० (१३०1१-२ ) का कथन है कि जो सरस्वती पर मरते हैं वे स्वर्ग जाते हैं और यह दक्ष की कृपा का फल है जिन्होंने यहाँ पर एक यज्ञ किया था। देखिए ओल्टम का लेख, जे० आर० ए०एस०, १८९३, पृ० ४९-७६ (२) इसी नाम की एक अन्य पवित्र नदी जो अरावली पर्वतमाला के अन्त में दक्षिण-पश्चिम से निकलती है और दक्षिण-पश्चिम में बहती हुई पालनपुर, महीकण्ठ आदि जिलों को पार करती तथा अन्हिलवाड़ एवं सिद्धपुर की प्राचीन नगरियों से बहती हुई कच्छ के रन में समा जाती है। देखिए 'प्रभास' के अन्तर्गत | सरस्वती - अरुणा-सङ्गम - - वन० ८३।१५१, कूर्म ० २। ३०।२२, शल्य० ४३।३१ एवं अ० ४४ । Jain Education International १४९७ सरस्वतीपतन - ( मथुरा के अन्तर्गत ) वराह० १५४।२० । सरस्वती - सागर-संगम - वन० ८२/६०, पद्म० १ २४ ९, वाम ० ८४।२९ । सर्करावर्ता --- (नदी) भाग० ५।१९।१८ । सर्गबिन्दु - ( नर्मदा के अन्तर्गत) कूर्म ० २।४२।२३ । सर्वतीर्थ - पद्म० २।९२।४ एवं ७ (प्रयाग, पुष्कर, सर्वतीर्थ एवं वाराणसी ऐसे तीर्थ हैं जो ब्रह्महत्या के पाप को भी दूर करते हैं । सर्वतीर्थेश्वर-- ( वारा० के अन्तर्गत ) स्कन्द० ४|३३| १३४ । सर्वहृद-- -- वन० ८५।३९ ( स्थान अनिश्चित है ) । सर्वात्मक - - ( कुब्जाम्रक के अन्तर्गत ) वराह० १२६ । ३७ । सर्वायुध -- ( शालग्राम के अन्तर्गत ) वराह० १४५/५६॥ सह्य या सह्याद्रि - (भारत के सात प्रमुख पर्वतों में एक ) ब्रह्म० १६१२, मत्स्य० १३०४०, ब्रह्माण्ड ० ३५६।२२, अग्नि ०१०९।२१ । सहस्रकुण्ड -- ( गोदा० के अन्तर्गत ) ब्रह्म० १५४११, ( तीर्थसार, पृ० ५९ ) । सह्यामलक - देखिए 'आमलक' । सह्यारण्य - देवीपुराण (ती० क०, पृ० २४४ ) । सहस्राक्ष -- मत्स्य० २२।५२, यहाँ का दान अत्यंत फलदायक होता है। साकेत - (अयोध्या) यह टालेमी की 'सागेद' है । देखिए ब्रह्माण्ड ० ३।५४।५४; महाभाष्य ( जिल्द १. पृष्ठ २८१, पाणिनि० १।३।२५ ) में आया है'यह मार्ग साकेत को जाता है, पुनः आया है--- ' यवन ने साकेत पर घेरा डाल दिया' (जिल्द २, पृ० ११९, पाणिनि ३।२।१११ ; 'अरुणद् यवनः साकेतम्'), यहाँ यवन का संकेत मिनेण्डर की ओर है । सुत्तनिपात (एस० बी० ई०, जिल्द १०, भाग २, पृ० १८८ ) ने बुद्ध के काल में इसकी चर्चा की है । फाहियान ने इसे 'शा-ची' एवं ह्वेनसांग ने 'बिसाख' कहा है। देखिए ऐं० जि०, पृ० ४०१ - ४०७ । रघुवंश (१३७९, १४/१३२, १५/३८) ने For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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